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ग्रन्थि के निकट लाने वाली चार दृष्टियां हैं - मित्रा, तारा, बला तथा दीप्रा ।।
- गृहस्थ को धन के बिना नहीं चलता । वे निरन्तर उसके लिए उद्यम करते ही रहते हैं । उस प्रकार से साधु को ज्ञान के बिना नहीं चलता । वे सतत स्वाध्याय करते रहते हैं । गृहस्थ को कितना धन प्राप्त हो तो तृप्ति हो ?
गृहस्थ को धन में तृप्ति नहीं होती और साधु को ज्ञान में तृप्ति नहीं होती । वे उनके लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं ।
अविद्या, अज्ञान, मिथ्यात्व एक हैं ।
विद्या, ज्ञान, सम्यग्दर्शन एक हैं । ये पर्यायवाची शब्द हैं । अभी बहनों ने पूछा, 'सम्यग्दर्शन के निकट कैसे पहुंचे ?
उत्तर : सम्यग्दर्शन की पूर्व भूमिका के रूप में चार दृष्टियां हैं । ज्यों ज्यों दृष्टियों में विकास होता जाता है, त्यों त्यों हम सम्यग्दर्शन के निकट पहुंचते रहते हैं । सम्यगदर्शन की पूर्व भूमिकाएं जानने के लिए ये योग-दृष्टियां विशेष पठनीय एवं समझने योग्य हैं ।
. प्रदर्शक एवं प्रवर्तक दो प्रकार के ज्ञान में प्रदर्शक ज्ञान बोझ स्वरूप है । गधे पर लदे चन्दन के भार तुल्य है । जीवन को बदल दे वही सच्चा ज्ञान, प्रवर्तक ज्ञान है ।
. मित्रा दृष्टि का प्रथम लक्षण ही यह है - 'जिनेषु कुशलं चित्तम् ।' अब तक प्रेम का प्रवाह जो कंचन एवं कामिनी के प्रति था, वह अब भगवान की ओर बहने लगता है ।
जिनेषु कुशलं चित्तम् - मन, तन्नमस्कार एव च - वचन, प्रणामादि च संशुद्धम् - काया, योग बीजमनुत्तमम् ॥ ये मित्रादृष्टि के लक्षण हैं।
संज्ञा से प्रेरित होकर यदि कोई भक्ति करता हो तो योग बीज नहीं कहा जायेगा ।
गुण दो प्रकार के होते हैं - एक दिखाने के लिए, दूसरे वास्तविक । उपादेयधियात्यन्तं । संज्ञाविष्कम्भणान्वितम् । फलाभिसन्धिरहितम् । जहां भक्ति होती है वहां वैराग्य होता है। संसार के विषय विष्ठातुल्य प्रतीत होते हैं । ये प्रथम दृष्टि के गुण हैं । उन गुणों का विकास उत्तरोत्तर बढता जाता हैं । दृष्टि अर्थात् (कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ३०५)