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वढवाण (गुजरात) उपाश्रय में पूज्यश्री, वि.सं. २०४७
२७-९-१९९९, सोमवार
आ. व. २
प्रमाद शत्रु है फिर भी हम उसे मित्र मानते हैं । भवभ्रमण प्रमाद के कारण ही है । कर्मबंध के अन्य कारणों का प्रमाद में समावेश हो जाता है । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - इन चारों का समावेश प्रमाद में हो जाता है ।
भगवती में प्रश्न है : 'किस कारण से भव-भ्रमण होता है ?'
उत्तर : 'प्रमाद ।' सिर्फ एक शब्द का जवाब । प्रमाद का पेट इतना बड़ा है कि अन्य सभी को वह स्वयं में समा लेता है।
नींद में तो प्रमाद है ही, हमारे जगने में भी प्रमाद है । निन्दा, विकथा, कषाय आदि जागृत अवस्था के प्रमाद हैं । आत्मभाव में जागृत होना सच्ची जागृति है। जब तक आत्म-भाव में जागृत न हो पायें, तब तक की जागृति भी प्रमाद ही है।
सर्वविरति अर्थात् अप्रमत्त जीवन । दिनचर्या ही ऐसी कि प्रमाद का अवकाश ही न रहे ।
राधनपुर में हरगोवनदास पण्डित के पास द्वितीय कर्म ग्रन्थ में ओंकारसूरिजी ने प्रश्नपत्र में पूछा - कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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