SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ प्रेम से धर्म समझाते हुए पूज्यश्री, वब्वाण, वि.सं. २०४७ । Ca २५-९-१९९९, शनिवार भा. सु. १५ - आगम आदि ग्रन्थों के पुनः पुनः पठन से संयम में शुद्धि एवं भावोल्लास में वृद्धि होती है ।। * आहार का प्रमाण सामान्यतः साधु के लिए-३२ कौर, साध्वी के लिए २८ कौर, परन्तु यह सबके लिए उपयुक्त नहीं होता । मन, वचन, काया के योग सीदायें नहीं, साधु उतना ही आहार करें जितने में उसकी क्षुधा शान्त हो जाये । जिस दिन विगई वापरनी हो उस दिन उसके लिए काउस्सग्ग करना पड़ता है । बोतल चढानी पड़े, दवाई लेनी पड़े ऐसा तप भी नहीं करना है और इतना भोजन भी नहीं लेना है । . निहार के लिए १०२४ भांगे बताये हैं जिन में एक भांगा शुद्ध है । संलोक, आपात, सचित्त, अचित्त, अनापात, असंलोक इत्यादि पदों के द्वारा १०२४ भांगे होते हैं । स्थंडिल भूमि पोकल नहीं होनी चाहिये, त्रस आदि जीवों से युक्त नहीं होनी चाहिये । इसका अर्थ यह नहीं है कि सड़क पर चाहे जहां बैठ जाना । इससे तो शासन की भयंकर अपभ्राजना (कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** २९५
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy