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__ हां, आहार बढ गया हो तब लें तो निर्जरा होती है, सहायता की है ऐसा कहा जायेगा ।
किसी साधु को रुक्ष आहार तो किसी साधु को स्निग्ध आहार अनुकूल पड़ता है । जिस प्रकार संयम-निर्वाह हो उस प्रकार करें ।
साधु सांप की तरह स्वाद लिए बिना कौर उतारता है। पीपरमिण्ट की तरह वह आहार को मुंह में इधर-उधर फिराता नहीं है ।
एक सैकण्ड के लिए भी राग-द्वेष न आ जाये, उसके लिए भगवान ने कितना ध्यान रखा है ?
भोजन करने के उदाहरण : १. व्रण लेप । २. पहिये में तेल ।
३. पुत्र का मांस (चिलातीपुत्र के पीछे पड़ते समय प्रिय पुत्री सुसमा का मांस खाते पिता की मनोदशा कैसी होगी ?)
भोजन का क्रम । प्रथम स्निग्ध मधुर, पित्त के शमन हेतु, बुद्धि आदि की वृद्धि हेतु । उसके बाद खट्टे पदार्थ, अन्त में तूरे, कड़वे (कटु) पदार्थ
भोजन के इस क्रम का कारण यह भी है कि पीछे से स्निग्ध पदार्थ बच जाय, पेट भर गया हो तो स्निग्ध पदार्थ परठने पड़ते हैं । ऐसा न हो, इसीलिए प्रथम स्निग्ध मधुर पदार्थ खाने चाहिये ।
भोजन की प्रशंसा करते हुए वापरें तो अंगार दोष । निन्दा करते हुए वापरें तो धूम्र दोष लगता है ।
भोजन की तीन पद्धतियां : (१) कट छेद (खिचड़ी आदिमें), (२) प्रतर छेद (रोटी आदिमें), (३) सिंह-भक्षित (पात्र में जैसे पड़ा हो वैसे ही वापरना । इन तीन पद्धतियों से आहार वापरना है ।
उत्तमोत्तम पदार्थ हों उनमें आसक्ति न हो, अतः बारह भावनाओं आदि से मन को भावित करना चाहिये ।
आहार के छ: कारण : १. क्षुधा वेदनीय का उदय २. वैयावच्च ३. इर्यासमिति ४. संयम की साधना
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