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घटमय बन गया । घटमय या धनमय अनेक बार बने । अब भगवन्मय क्यों न बनें ?
ज्ञान में एकाग्रता नहीं होती, ध्यान में एकाग्रता होती है । इसी लिए वीरविजयजी कहते हैं
'तुमे ध्येयरूपे ध्याने आवो, शुभवीर प्रभु करुणा लावो, नहीं वार अचल सुख साधंते, घड़ी दोय मलो जो एकांते' वीरविजयजी ने कहा है 'केवल दो घड़ी भगवान में हमारा उपयोग रहे तो काम बन जाये ।'
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जिसके हृदय में भगवान की भक्ति नहीं है, उसके लिए भगवान दूर हैं । जहां भक्ति है उसके लिए भगवान यहीं हाजिर हैं गोशाले के पास ही भगवान थे, फिर भी भाव से दूर ही थे । सुलसा भगवान से दूर थी फिर भी भक्ति से भगवान उसके लिए निकट थे । दूर रहे भगवान को समीप लाने, हृदय में प्रवेश कराने का नाम भक्तियोग है । उसके लिए ही लाखों अरबों रूपये खर्च करके इन मन्दिरों का निर्माण कराया है ।
यदि भगवान के प्रति प्रेम-भाव जागृत हुआ तो सब पैसे वसूल हैं । अन्यथा जैन लोग मूर्ख नहीं हैं कि करोड़ों रूपये मन्दिरों में लगाये । जैन लोग समृद्ध हैं, उसका कारण भी जिन-भक्ति एवं जीव-दया है ।
आप यदि दान का प्रवाह चालु रखेंगे तो लक्ष्मी आये बिना नहीं रहेगी ।
'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक मल्युं. आध्यात्मिक वाचनाओनुं सरस संकलन कर्तुं छे. अध्यात्म- योगी पूज्य आचार्य- भगवंतनी पानेपाने विविध मुद्राओ द्वारा दर्शन पण थाय छे. तत्त्वना खजानाथी भरपूर छे. खरेखर ! तमारुं संपादन दाद मांगी ले तेवुं छे.
आचार्य विद्यानंदसूरि
कहे कलापूर्णसूरि - १ ********
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