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नहीं, साधु में ऐसी भावना नहीं होनी चाहिए । वह चाहे जहां जाये । अपरिचित एवं अज्ञात व्यक्तियों के वहां विशेष करके जायें, और वहेराये बिना भी लाभ प्राप्त किया जा सकता है, यह भी संकेत दिया । उसके बाद ज्ञानी को प्रश्न पूछने पर उन्होंने पूरण सेठ की अपेक्षा जीरण सेठ को पुण्यशाली बताया ।
दूसरों को भोजन कराये बिना अथवा गाय, कुत्ते आदि को खिलाये बिना यहां का आर्य पुरुष कभी भोजन नहीं करता था ।
. इस समय भयंकर अकाल है । एक बूंद भी वर्षा नहीं हुई है। स्थान-स्थान पर पांजरापोल ढोरों से भर गई है। सांतलपुर में अभी ही पांजरापोल शुरू हुई है । दो ही दिनों १८०० ढोर आ गये । ऐसी दशा में हम सबको जागृत होने की आवश्यकता है ।
वि.संवत् १९४२-४३ में मैं यहां था तब दुभिक्ष था । उस समय जैनों ने रूपयों की ऐसी वृष्टि की कि सरकार भी देखती रह गई । केन्द्र सरकार ने भी जैनों को धन्यवाद दिया ।
_ 'भक्ति भगवति धार्या ।' हम हृदय में अनेक व्यक्तियों को धारण करते हैं । व्यापारी, ग्राहक, माल आदि सब मन में धारण करते हैं । वकील असीलों के सम्बन्ध में सब याद रखते हैं, मन में धारण करते हैं, इस प्रकार सब लोग, सब कुछ धारण करते हैं, परन्तु भगवान को कौन धारण करता है ? भगवान किसके मन में हैं ? भगवान को कब हृदय में धारण करते हैं ? जब तक हम मन्दिर में होते हैं । मन्दिर में से बाहर निकलने पर भगवान भी हमारे हृदय में से बाहर निकल गये, हमने अपना जीवन ऐसा बना दिया है ।
भगवान भले ही चौदह राजलोक दूर हो, परन्तु भक्ति से भक्त उन्हें हृदय में बसा सकता है ।
प्रत्येक भक्त जानता है कि सीमंधर स्वामी भरतक्षेत्र में कभी नहीं आते, आ भी नहीं सकते, फिर भी प्रार्थना करते हैं कि 'श्री सीमंधर जगधणी ! आ भरते आवो।' यह जूठ नहीं कहा जायेगा ? हमारा उपयोग जब भगवन्मय बना तब हम स्वयं भगवान बन गये । इसे ही कहा जाता है कि हृदय में भगवान आ गये। __ घड़े का ध्यान धरने से हम घटमय बन गये । हमारा उपयोग
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