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महासुखभाई से वार्ता-विमर्श करते हुए पूज्यश्री,
सुरेन्द्रनगर, दि. २६-३-२०००
१८-९-१९९९, शनिवार
भा. सु. ८
धर्मसंग्रह ग्रन्थ के दूसरे भाग में साधु की विस्तारपूर्वक चर्या बताई है । प्रथम भाग में श्रावक धर्म का वर्णन है ।।
प्रत्येक विधि का सूक्ष्मता से निरीक्षण करने पर मालुम होगा कि तीर्थंकरों की जीवों पर कितनी करुणा है ?
सादड़ी में चालू मांडली में चारित्रभूषणविजयजी के पात्र में से एक कुत्ता मेथी का लड्डु ले गया था ।
इसीलिए वापरने से पूर्व ऊपर-नीचे एवं आसपास में देखने का विधान है।
गोचरी लेने के लिए घूमते, पसीने से तर-बतर जैन साधु को देख कर एक विशेषज्ञ वैद्य उनके पीछे-पीछे चल कर उपाश्रय में आया । वह मानता था कि तत्काल यदि ये साधु आहार ग्रहण करेंगे तो मुनि में दोषों का प्रकोप होगा, परन्तु साधु महाराज तो पच्चक्खाण पार कर सत्रह गाथा का स्वाध्याय करके वापरने के लिए बैठे, जिससे देह में धात् सम हो गई। बाद में वापरने के लिए बैठने के कारण वैद्य सर्वज्ञोक्त विधान पर झुक पड़ा । कैसा सर्वज्ञ का शासन !
भयंकर भूख लगी हो तब सत्रह गाथा का स्वाध्याय भी सतहत्तर कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** २६७)