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हरिभद्र ने कहा है - 'गुरुभक्तिप्रभावेन, तीर्थंकृद्दर्शनं मतम् ।'
__ - हरिभद्रसूरि . जब हम गुरु-वन्दन करते हों तब वे व्याक्षिप्त, प्रमत्त (नींद में) विपरीत मुंह किये, आहार-नीहार करते हुए या करने के लिये तत्पर नहीं होने चाहिये । (ऐसे समय गुरु-वन्दन न करें)
. स्थंडिल, मात्रु के वेग को रोकने से अत्यन्त हानि होती है । अतः कभी रोकें नहीं । होस्पिटल में जाना पड़े, उसकी अपेक्षा पहले से ही हमें अपना स्वास्थ्य सम्हालना चाहिये । हमें ही अपना वैद्य बनना है।
अध्यात्मसार :
एक प्रमाद समस्त दोषों को खींच लाता है । अतः उन्हें जीतने के लिए आत्मबोध की निष्ठा रखें । इसके लिए 'सर्वत्र एव आगमः पुरस्कार्यः ।' सर्वत्र आगमों को आगे रखें । 'नमो अरिहंताणं' आगमों का सार है ।
प्रश्न : सामायिक नियुक्ति के प्रारम्भ में नवकार की व्याख्या क्यों ?
उत्तर : नवकार सामायिक से भिन्न नहीं है, यह बताने के लिए व्याख्या की है । नवकार सामायिक का आदि सूत्र है ।
. आत्मा अतीन्द्रिय है। हेतु-तर्क से पता नहीं लगेगा । अनुभवगम्य ही है आत्मा ।
__'त्यक्तव्याः कुविकल्पाः' आगमों के अध्ययन से कुविकल्प नष्ट होते हैं । जब तक निर्विकल्प दशा का अनुभव न हो तब तक कुविकल्प-निरोध का अभ्यास करें ।
_ 'स्थेयं वृद्धानुवृत्त्या' सदा वृद्ध का अनुसरण करें। सब युवा चाहिये, वृद्ध नहीं, ऐसी हठ करने वाले उस राजा की कथा आपको याद होगी।
___'साक्षात्कार्यं तत्त्वम्' आत्म तत्त्व का साक्षात्कार करना है, ऐसी तीव्र भावना होनी चाहिये ।
__ 'आत्मसाक्षात्कार किये बिना मरना नहीं है', ऐसा दृढ निर्णय करें । जिस प्रकार श्रावक का निर्णय कि दीक्षा लिये बिना मरना नहीं है, उस प्रकार साधु का मनोरथ आत्म-साक्षात्कार
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