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मैं कहता, 'आप भला तो जग भला । में अच्छा बन गया तो सब अच्छा होगा'
भगवान के भक्त का कभी अहित नहीं होता । विघ्न आते ही नहीं ।
. कामी भगवान का भक्त बन सकता है परन्तु भक्त कामी नहीं बनता । उदाहरणार्थ तुलसीदास रत्नावली के प्रति आसक्त थे । फिर भक्त बने । 'जहां राम वहां नहीं काम, जहां काम वहां नहीं राम, तुलसी दोनों ना रहें, रवि-रजनी इक ठाम ।'
___ - तुलसीदास * गोचरी की आलोचना में जीवमैत्री, जिनभक्ति, गुरुभक्ति तीनों है । इरियावहियं से जीवमैत्री, लोगस्स (चतुर्विंशति स्तव) से जिन-भक्ति, गुरु समक्ष करने से गुरु-भक्ति ।
. सर्वाधिक बड़ा दोष अपना मनमौजी स्वभाव है। इच्छानुसार मैं करूं । इसे हम उत्तम गुण मानते हैं, स्वतन्त्रता मानते हैं, परन्तु ज्ञानी कहते हैं कि यही बड़ी परतन्त्रता हैं ।
न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति । स्त्री जिस प्रकार किसी अवस्था में स्वाधीन स्वतंत्र नहीं होती । बचपन में माता-पिता के, यौवन में पति के, वृद्धावस्था में पुत्र के आधार पर जीवन यापन करती हैं । (ऐसी सतीयों की भगवान ने भी प्रशंसा की है) उस प्रकार शिष्य भी कभी स्वतंत्र नहीं रहता ।
आजकल यह मर्यादा लुप्त होती जा रही है । स्त्री-स्वतंत्रता के आन्दोलन चलते हैं । एक तो बन्दर और ऊपर से उसे मदिरापान कराया जाता है। ऐसे भयंकर वातावरण में पूर्व के प्रबल संस्कारों के बिना दीक्षा ग्रहण नहीं की जा सकती । यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं ।
शिष्य के लिए भगवद्भक्ति की तरह गुरुभक्ति भी आवश्यक है । पंचसूत्र में लिखा - 'गुरु-बहुमाणो मोक्खो ।' गुरु के बहुमान से तीर्थंकर मिलते हैं । गुरु के बहुमान से ऐसा पुन्य उपार्जित होता है जिससे इस जीवन में भी तीर्थंकर मिलते हैं । किस प्रकार ? समापत्ति के द्वारा, ध्यान के द्वारा - इस प्रकार (२५० ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)