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प्रवचन फरमाते हुए पूज्यश्री, सुरेन्द्रनगर, दि. २६-३-२०००
६-९-१९९९, सोमवार
भा. व. ११
* ज्ञान से श्रद्धा बढती है । ज्ञान एवं श्रद्धा से चारित्र बढता है । ज्ञान-रहित श्रद्धा उधार होती है । ज्ञान से प्राप्त श्रद्धा स्वयं की होती है । पहले सिर्फ गुरुजनों पर भरोसा था । उसके बाद स्वयं समझा हुआ होता है । प्रथम श्रद्धा विचलित हो सकती है, दूसरी नहीं ।
ज्ञान + श्रद्धा दोनों साथ मिलकर चारित्र लाते ही हैं ।
ये तीनों मिलकर मोक्ष लाते ही हैं। इसीलिए 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः । यहां 'मार्ग' में एक वचन, तीनों अलग-अलग नहीं, परन्तु साथ मिलें तो ही मोक्ष होता है, ऐसा दिखाता है ।
. सम्पूर्ण नवकार का 'नमो अरिहंताणं' में समावेश हो जाता है, क्योंकि अरिहंत पंच परमेष्ठिमय है । दीक्षा ली तब मुनि, गणधरों के गुरु बनने पर आचार्य, पाठ दिया तब पाठक-उपाध्याय, अरिहंत तो स्वयं हैं ही, सिद्ध भी होने वाले ही हैं । 'लोकोत्तमो निष्प्रतिमस्त्वमेव, त्वं शाश्वतं मङ्गलमप्यधीश । त्वामेकमर्हन् शरणं प्रपद्ये, सिद्धर्षिसिद्धर्ममयस्त्वमेव ॥'
- सिद्धसेनदिवाकरसूरि, शक्रस्तव
********* कहे कलापूर्णसूरि - १)
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कहे