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है, जिसका नाम है 'धर्म बीज ।' प्रस्तावना भद्रंकर विजयजी की है, लेखक हैं - तत्त्वानन्द विजय ।
इन चार भावनाओं के बल पर ही भगवान को अष्ट प्रातिहार्यादि की ऋद्धि प्राप्त हुई है ।
'तुभ्यं योगात्मने नमः' वीतराग स्तोत्र में हेमचन्द्रसूरि ने कहा है । योगी को ये चार भावनाएं स्वयं सिद्ध होती हैं ।
शान्तसुधारस भावना में विनयविजयजी कहते हैं - 'योगी चाहे जितनी साधना करता हो, परन्तु भावनाओं के बिना शान्त रस का आस्वादन नहीं कर सकता ।
दुर्ध्यान की भूतनिर्यां इन भावनाओं से भाग जाती हैं । भक्ति : 'जगचिन्तामणि' अद्भुत भक्ति सूत्र है । हमारे सूत्र दो विभागों में बंटे हुए हैं - मैत्री, भक्ति में । नवकार, नमुत्थुणं, जगचिन्तामणि आदि भक्ति-सूत्र है ।। इरियावहियं, तस्स उत्तरी, वंदित्तु आदि सूत्र मैत्रीसूत्र हैं ।
नमस्कार में नमस्करणीय की वृद्धि होती रहे, त्यों त्यों फल में वृद्धि होती जाती है।
दान में जैसे लेने वालों की वृद्धि होने पर फल की वृद्धि होती जाती है।
दुकान में ग्राहक बढने पर जैसे कमाई बढती जाती है ।
आ काळना अद्भुत प्रभुभक्त रूपे तेओश्री समग्र संघमां सुप्रिसद्ध । हता । ए प्रभुभक्तिना प्रधान परिणाम रूपे आंतरविशुद्धिने तो तेओश्री वर्या ज हता, परंतु एनी साथोसाथ सामान्यजनने नजरे आवे एवी पनोती पुन्याइ पण वर्या हता । एमनी अद्भुत प्रभुभक्ति तथा श्री नमस्कार निष्ठाने हार्दिक भावांजलि ।
- एज... वि. सूर्योदयसूरि
गणि राजरत्नविजय म.सु. ४, अंधेरी.
कहे कलापूर्णसूरि - १ *********
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