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'इरियावहियं' जपते । मोह का कार्य मलिन बनाने का है, भगवान का कार्य निर्मल बनाने का है । 'इरियावहियं' हमारा भाव-स्नान है । भगवान की भक्ति हमारा भाव-स्नान है ।
इरियावहियं जीव मैत्री, नवकार जिन-भक्ति का सूत्र है ।
. जहां मैत्री होगी, वहां प्रमोद, करुणा एवं मध्यस्थता होगी ही । प्रमोद, करुणा एवं मध्यस्थता मैत्री को टिकानेवाले परिबल हैं ।
. अशुभ भावों का मूल दो कनिष्ठ इच्छाएं है : १. मुझ पर कोई कष्ट न आये, मेरे समस्त दुःख मिट जायें ।
२. संसार के समस्त सुख मुझे ही प्राप्त हों । __ इनमें से ही अशुभ भाव उत्पन्न होते हैं । द्वेष, तिरस्कार, ईर्ष्या, असूया, माया, लोभ आदि दोष इनमें से ही उत्पन्न होते हैं ।
अब इन दो अशुभ भावों को दूर करने के लिए शुभ भाव जगायें । १. कोई पाप न करो जगत् में । २. कोई दुःखी न बनो जगत् में ।।
दूसरों के लिए शुभ भावनाओं का झरना प्रवाहित करने पर हमें ही सुख का प्रवाह प्राप्त होता है।
यदि दुःख नष्ट करने हों तो पाप नष्ट करने होंगे, क्योंकि दुःख का मूल पाप है ।
क्या आपका कोई मित्र है ? आप मित्र के दुःख से दुःखी होते हैं न ? उसे दूर करने के लिए कुछ प्रयत्न करते हैं न ?
अब जगत् के समस्त जीवों को मित्र बनायें । आपको स्वहित की चिन्ता हो तो भी पर-हित की चिन्ता करो । परहित की चिन्ता किये बिना, स्व-हित हो ही नहीं सकता ।
मैत्रीभावना की अपेक्षा करुणा-भावना सक्रिय है, क्योंकि करुणा में दुःखी का दुःख दूर करने का प्रयत्न है ।
अमेरिका के प्रेसिडैण्ड अब्राहम लिंकन ने कीचड़ के खड्डे में फंसे हुए शूकर को स्वयं बाहर निकाला ।।
यह करुणा कही जाती है - परहित-चिन्ता मैत्री, पर-दुःख - विनाशिनी करुणा । पर-सुख - तुष्टिर्मुदिता, परदोषोपक्षणमुपेक्षा ॥ इन चारों भावनाओं का स्वाध्याय करना हो तो एक पुस्तक
*** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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