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मिथ्यात्व गुणस्थानक भी सच्चे अर्थ में अपुनर्बंधक (मित्रादृष्टि) में घटित होता है । गुण का स्थान वह गुणस्थानक । बाकी ओघ से मिथ्यात्व गुण-स्थानक तो एकेन्द्रिय को भी है, उस प्रकार हमें भी हो तो फरक क्या रहा ?
बाहर से भले ही हमारी बहुत ही प्रशंसा होती हो, परन्तु यह कोई अपनी साधना का प्रमाणपत्र नहीं है । लोगों के कहने से हम श्रेष्ठ नहीं बन सकते । अभी हम जानते अवश्य हैं, परन्तु दूसरों को बताने के लिए । जब तक उक्त ज्ञान अपनी साधना में नहीं लगायेंगे, तब तक आत्म-कल्याण नहीं होगा ।
प्रीति, भक्ति, वचन, असंग - इन चार योगों में स्थिर, दृढ रहें तो कहीं भूलें नहीं पड़ेंगे ।
जिनेश्वर विहित ऐसा कोई अनुष्ठान नहीं है जिसमें आत्मशुद्धि न हो । हानि का कोई अंश नहीं और लाभ का पार नहीं ।
. नगर-प्रवेश के समय पैर पूंजने चाहिये, परन्तु यदि लोग कोई उल्टी-सीधी शंका करने लगे तो पैर न भी पूंजे ।।
. मात्रु के वेग को कभी न रोकें । रोकने से नेत्रों को हानि होगी ।
. अभी हमारे लिए शास्त्र ही तीर्थंकर हैं । शास्त्रों का बहुमान भगवान का बहुमान है ।
शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद्, वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्, नियमात् सर्वसिद्धयः ॥
शास्त्र आगे किये, उन्होंने भगवान को आगे किये और भगवान को आगे करने पर सर्व सिद्धियां प्राप्त होंगी ही ।
. अर्थ पुरुषार्थ दान धर्म के साथ, काम पुरुषार्थ शील धर्म के साथ, धर्म पुरुषार्थ तप धर्म के साथ, मोक्ष पुरुषार्थ भाव धर्म के साथ सम्बन्धित है ।
• कदम-कदम पर देह में से अशुचि निकलती है । देह की शुद्धि जल से हो सकती है । आत्मा भी कदम-कदम पर चाहे जितनी सतर्कता रखे तो भी अशुचि से लिप्त होता रहता है। इसी कारण से प्रत्येक अनुष्ठान से पूर्व 'इरियावहियं' आवश्यक है।
__ . पूर्णानन्दसूरिजी (वल्लभसूरिजी के) नित्य १०८ बार (कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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