________________
मूर्ति के आकार में ही दिख रहा था । मैंने अनेकों को अग्निदाह दिया है और देखा है कि घंटे-दो घंटे में हाथ-पांव आदि की हड्डियां अपनेआप अलग-थलग हो जाती है, लेकिन पूज्यश्री के शरीर में ऐसा नहीं हुआ । खोपरी तोड़ने के लिए कई लोगों ने बड़े बड़े लक्कड़े भी जोर से मारे, फिर भी आकृति में कोई फरक नहीं पड़ा । धीरे-धीरे देह छोटा होता गया, लेकिन आकृति तो अंत तक अरिहंत की ही रही । मैं सुबह ४-३० बजे तक वहीं जागता रहा और देखता रहा । मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा । मेरी तरह दूसरे भी हजारों लोगों ने यह दृश्य देखा । सभी आश्चर्य चकित हो गये । महाराजश्री ! ऐसा क्यों हुआ ?
हमने कहा : 'चीमन ! इसमें आश्चर्य या चमत्कार की कोई बात नहीं है । यह स्वाभाविक ही है । क्यों कि पूज्यश्री ने बचपन से ले कर मृत्यु पर्यंत अरिहंत प्रभु का ही ध्यान किया है। पूज्यश्री के व्याख्यान में, वाचना में, हितशिक्षा में, पत्र में, लिखने में, मन में, हृदय में, शरीर के रोम-रोम में भगवान ही भगवान थे। उनकी सभी बातें, सभी चिन्तन भगवान के आसपास ही घुमते थे । पूज्यश्री की चेतना भगवन्मयी बन गई थी । एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मन जिसका ध्यान धरता है, शरीर उसका स्वीकार कर लेता है। नींबू बोलते ही मुंह में कैसे पानी आने लग जाता है ? मन का शरीर के साथ गहरा संबंध है ।
ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि एक कवि को पंपा सरोवर के चिन्तन से जलोदर रोग हो गया तब सुबुद्धि नाम के कुशल वैद्य ने मरुधर का चिन्तन छ महिने तक करने के लिए कहा था । और सचमुच मरुधर के चिन्तन से उसका जलोदर मिट गया था । यह है मन के साथ शरीर का संबंध ।
श्रेणिक राजा की चिता जब जलाई गइ तब कहा जाता है कि उनकी हड्डियों में से वीर.. वीर... की ध्वनियां प्रगट हुई थी । वह तो २५०० वर्ष पुरानी घटना है, लेकिन पूज्यश्री का देह अरिहंत के आकार में अंत तक रहा, यह तो आज की घटना है ।
अरिहंत के ध्यान में ही लीन पूज्यश्री की अर्हन्मयी चेतना देवलोक में जहां पर भी होगी वहां अरिहंत-भक्ति में ही लीन होगी, इतना तो सुनिश्चित ही है।
हमारे जवाब से चीमन को संतोष हुआ ।