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पूज्यश्री की अर्हन्मयी चेतना को हृदय के अनंत अनंत वंदन ! पूज्यश्री देहरूप से आज भले ही विद्यमान नहीं है, लेकिन गुणदेह से, शक्तिदेह से और अक्षरदेह से आज भी विद्यमान है ।
यह पूरा ग्रन्थ पूज्यश्री का अक्षरदेह ही है । अब तो ऐसे ग्रन्थ ही हमारे लिए परम आधारभूत है । क्यों कि दिव्य वाणी को बरसानेवाले पूज्य श्री अब हमारे बीच नहीं है ।
पूज्यश्री बार बार कहते थे : भगवान कहीं गये नहीं है, वे मूर्ति में एवं शास्त्रों में छिपे है
यहां पर भी हम यही कह सकते हैं : पूज्यश्री भी अपनी वाणी में (ऐसे ग्रन्थों में) छिपे हैं ।
सभी जिज्ञासु आराधक पूज्यश्री की वाणी-गंगा में स्नान कर के अपनी आत्मा को पावन बनाएं इसी कामना के साथ
पुरांबेन जैन धर्मशाला
(पू. कलापूर्णसूरि स्मृति स्थल के पास ) पो. शंखेश्वर, जी. पाटण (उ.गु.), पीन : ३८४ २४६.
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ਸਬਰ
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पं. मुक्तिचन्द्रविजय गणि मुनिचन्द्रविजय चैत्र वद २, वि.सं. २०५८ शनिवार, दिनांक ३०-३-२००२
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