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________________ हमने ही यह संसार अपने हाथों खड़ा किया है, घटाने का कहीं नाम नहीं है। अभी संसार में जन्म-मृत्यु चालु है, क्या वह बराबर है ? कि थकान लगती है ? . देह का त्याग उतना ही मोक्ष का अर्थ नहीं है। केवलज्ञानी हो कि संसारी हो सभी का भी देह छूटता है। देह छूटने के साथ कर्म छोड़ना ही मोक्ष है । देह छूटने के साथ विषय-कषायों के संस्कार साथ ले जाना मृत्यु है। सात जन्मों तक सर्व विरति प्राप्त हो जाये तो मृत्यु को मोक्ष में अवश्य बदल सकते हैं । संसार के सागर में देश-विरति की नाव नहीं चलती, सर्वविरति का स्टीमर चाहिये । केवल वेष नहीं, भाव साधुत्व चाहिये । छ:काय की रक्षा के साथ आत्मा (शुभ अध्यवसायों) की रक्षा करे उसे भाव साधुत्व प्राप्त होता है ।। . आज-कल श्रावकों की तत्त्वरुचि घटी हुई दिखती है । आज से ६०-७० वर्ष पूर्व कैसे तत्त्व-जिज्ञासु श्रावक थे ? आज कहां है ? आज आप छुट्टीयों के कारण अधिक संख्या में आते हैं, परन्तु वास्तव में क्या आपको जिनवाणी श्रवण में रस है ? . यह तीर्थ उत्तम बना है । उसे पर्यटन एवं भ्रमण का स्थान नहीं बनायें । वासक्षेप न मिले तो निराश मत होना । गुरु के मुंह से 'धर्मलाभ' सुना, आशीर्वाद मिल गया, कार्य हो गया । भीड़ अधिक होने से वासक्षेप भी डाल नहीं सकता । डाक्टर का भी इनकार है । पंचवस्तुक : सिर्फ कष्ट सहन करने से ही आत्म-शुद्धि हो जाती हो तो बैल, मजदूर (श्रमिक) आदि अनेक कष्ट सहन करते हैं । इसमें आज्ञापूर्वक की आत्म-शुद्धि का लक्ष्य होना चाहिये । 'जो कष्टे मुनि मारग थावे, बलद थाये तो सारो । भार वहे जे तावड़े भमतो, खमतो गाढ प्रहारो ॥' - उपा. यशोविजयजी द्वारा विरचित ३५० गाथा का स्तवन । २३६ ****************************** कहे
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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