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पू. कनकसूरिजी निःस्पृह शिरोमणि थे । उन्हें प्रसिद्धि की कोई अपेक्षा नहीं थी । यदि वे सोच लेते तो अनेक शिष्य कर सकते थे । योग्यता प्रतीत न होने पर वे दूर ही रहे ।
- मद्रास में रशिया (रुस) का तत्त्वजिज्ञासु आया था । उसके लिए वह हिन्दी का अध्ययन करके आया था । खरतरगच्छ के प्रमुख मोहनलालजी ढढ्ढा उसे लेकर आये थे । 'मुझे तत्त्वज्ञान सीखना है ।' ऐसी उसकी बात जानकर उसे तत्त्वज्ञान प्रवेशिका का प्रथम पाठ सिखाया गया । वह अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ ।
क्या आपमें ऐसी जिज्ञासा है ? हमारे पास आप क्यों आते हैं ? धन्धा अच्छा चले, स्वास्थ्य अच्छा रहे, इसलिए ?
- त्याग, वैराग्य, करुणा, भक्ति, मैत्री के संस्कार प्रगाढ किये बिना भवान्तर में वे आपके साथ नहीं आयेंगे । अतः नित्य इन सब के संस्कार सुदृढ करने हैं ।
- दूसरे जीवों का क्षायिक सम्यक्त्व हो तो भी 'वरबोधि' नहीं कहलाता । भगवान का क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी 'वरबोधि' कहलाता हैं वह परोपकार और करुणा की वजह से ही ।।
ऐसे करुणामय, करुणासागर भगवान अन्यत्र कहां मिलेंगे ?
वे पटु, अभ्यास एवं आदर से वैराग्य आदि को संस्कार देकर ऐसे सुदृढ बनाते हैं कि वे भवान्तर में भी साथ चलते हैं ।
. पू. पं. भद्रंकरविजयजी महाराज को पूछा : 'आपने नवकार को ही क्यों पकड़ा ?' वे कहते - 'इन समस्त सूत्रों के विधि-विधान देखने पर लगता है कि इनमें निहित सब जीवन को कब उतारेंगे ? सूत्रों से भी नहीं तो अर्थ से कि तदुभय से तो कैसे उतार सकेंगे ? अतः मैंने सोचा, 'सब तो नहीं पकड़ा जा सकेगा । एक नवकार को बराबर पकड़ लें तो भी हमारा उद्धार हो जाये । इस कारण एक नवकार बराबर पकड़ा है ।'
* पटु, अभ्यास एवं आदर इन तीनों को (वैशेषिक दर्शन प्रथम पाद) अजैन लोग भी मानते हैं, परन्तु मतिज्ञान के प्रकारों के रूप में हमें भी वह मान्य हैं, इस प्रकार जम्बूविजयजी महाराज ने बताया था ।
. पं. मुक्तिविजयजी 'अभिधान कोश' एवं प्राकृत व्याकरण का वृद्धावस्था में भी पुनरावर्तन करते थे । उत्तर में कहते - भवान्तर कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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