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शिष्य गण के साथ पूज्यश्री, सुरेन्दनगर, दि. २६-३-२०००
२९-८-१९९९, रविवार भा. व. ३
धर्म मंगल ही करता है । अधर्म, अमंगल - अहित ही करता है । मंगल का दूसरा नाम सुख है । घर से निकलते समय मंगल करते हैं, परन्तु वह द्रव्य मंगल है । धर्म संसार के समस्त मंगलों में उत्कृष्ट है : 'धम्मो मंगलमुक्तिट्टं ।' धर्म का मूल विनय है । इसलिए नवकार महामंगल कहलाता है। मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं ।
धर्म को लगे कि हममें योग्यता है तो ही वह हमारे भीतर आता है । अधर्म योग्यता - अयोग्यता कुछ भी नहीं देखता । वह तुरन्त झपट कर आता है, जबकि धर्म योग्यता के बिना आता ही नहीं है ।
योग्यता के लिए परवाह करनी पड़ती है, अयोग्यता के लिए कुछ भी आवश्यक नहीं है ।
थोड़ी योग्यता नहीं दिखे तो धर्म खिड़की में से झांक कर ही भाग जाता है, भीतर आता ही नहीं । इसी कारण से धर्माचार्य सर्व प्रथम योग्यता देखते हैं । अतः शास्त्रकार अयोग्य को धर्मसूत्र देने का निषेध करते हैं ।
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**** कहे कलापूर्णसूरि - १