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अनूच्चारण (अनु+उच्चारण) भी करना है, तो ही क्रियाओं में जान आयेगी ।
. कायोत्सर्ग बढ़ने के साथ समाधि बढती है। इसीलिए लोगस्स को समाधिसूत्र, परमज्योति सूत्र कहा गया है । 'साहित्य विकास मण्डल' की ओर से 'लोगस्स स्वाध्याय' पुस्तक प्रकाशित की गई है, जो पठनीय है ।
चित्त विक्षिप्त हो तब नवकार,
चित्त स्वस्थ हो तब लोगस्स गिनो ताकि लोगस्स का अनादर न हो ।
ऐसा कोई मत कहना कि जैनों में ध्यान नहीं है। यहां तो छोटा बालक भी ध्यान करता है। नवकार या लोगस्स का काउस्सग्ग करते हैं वह ध्यान नहीं तो और क्या है ?
धीरे धीरे प्रयत्न करने पर लोगस्स के काउस्सग्ग में भी अपूर्व आनन्द प्राप्त होने लगेगा ।
• आत्मा तो आनन्द का भण्डार है। यदि वहां से आनन्द की प्राप्ति नहीं होगी तो अन्य कहां से प्राप्त होगी ? आत्मा में से, स्वयं में से जो आनन्द प्राप्त नहीं कर सकता उसे संसार के किसी कोने में से आनन्द प्राप्त नहीं होगा।
स्वप्न में भी ध्यान, काउस्सग्ग, स्वाध्याय, चैत्यवन्दन आदि चल रहे हों, मन आनन्द में लीन रहता हो तो समझें कि साधना कार्य करने लग गई है ।
• चैत्यवन्दन क्या है ? यदि यह सम्यक् प्रकार से जानना चाहो तो एक बार आप 'ललितविस्तरा' अवश्य पढें। वहां परम समाधि के बीज किस प्रकार विद्यमान हैं, यह आप जान पायेंगे ।
'नमुत्थुणं' की आठ सम्पदाओं से भगवान की महत्ता, अत्यन्त करुणा-शीलता आदि जानने मिलेंगे। सिद्धर्षि को इससे ही प्रतिबोध प्राप्त हुआ था ।
भगवान की इस धरोहर के यदि हम उत्तराधिकारी नहीं बनें तो कौन बनेगा ? पिता की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी पुत्र ही बनता है न ?
भगवान हमारे परम पिता हैं, हम सुपुत्र बने हैं कि नहीं, यह हमें जांच करनी है ।
कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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