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शुद्ध आत्मा । उसका ध्यान अर्थात् आत्मा का ही ध्यान ।
• जिस प्रकार मान सरोवर में हंस रमण करते हैं, उस प्रकार मुनियों के मन में सिद्ध रमण करते हैं ।
ऐसे मुनि अरूपी एवं दूर स्थित सिद्धों के हमें यहां दर्शन कराते हैं।
मुनिओं के मन में रमण करते सिद्धों को देखने के लिए हमारे पास श्रद्धा के नेत्र चाहिये ।
नेत्र चार प्रकार के होते हैं - चर्म चक्षु : चौरिन्द्रिय से लेकर सब को । अवधिज्ञान के नेत्र : देव-नारक को । केवलज्ञान के नेत्र : केवली + सिद्धों को । शास्त्र के नेत्र : साधुओं को ।
. दो हजार सागरोपम पूर्व हम निश्चित रूप से एकेन्द्रिय में थे । इतने समय में यदि हम मोक्ष में न जायें तो पुनः एकेन्द्रिय में जाना पड़ेगा ।
यही हमारा भूतकाल है । यदि मोक्ष में न जायें तो यही हमारा भविष्यकाल है ।
___T.V., सिनेमा आदि के पीछे पागल बनने वाली वर्तमान पीढी को देखकर हमें चिन्ता होती है कि इनका क्या होगा ? ये अपने नेत्रों का कैसा दुरुपयोग करते हैं ? इन्हें पुनः नेत्र कैसे मिलेंगे ? नेत्र भारी पुन्य से प्राप्त हुए हैं। इनका दुरुपयोग न करें । शास्त्रों का पठन करो । जयणा का पालन करो, जिनमूर्ति के दर्शन करो । ये ही नेत्रों का सदुपयोग है ।
- शास्त्र हृदय में, जीवन में जीवंत चाहिये । हमारा जीवन पल-पल में उसके उपयोग से युक्त चाहिये । यही सच्चा शास्त्र है । भण्डार में पड़ी हुई पुस्तकें तो स्याही एवं कागज हैं, केवल द्रव्यशास्त्र है । शास्त्रानुसारी जीवन ही भाव-शास्त्र है।
. जिस प्रकार योद्धा ढाल से तलवार आदि के प्रहारों को रोकते हैं, उस प्रकार साधक क्रोध आदि के प्रहारों को क्षमा आदि से रोकते हैं।
- क्रिया करते समय सूत्र केवल सुनने ही नहीं हैं, उनका २१४ ****************************** कहे
*** कहे कलापूर्णसूरि - १)