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. भगवान की आज्ञा अवलंबिऊण कज्जं जंकिंचि समायरंति गीयत्था ।
थेवावराह बहुगुण, सव्वेसिं तं पमाणं तु ॥ ण य किं चि अणुन्नायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । तित्थगराणं आणा कज्जे सच्चेण होअव्वं ॥
- पंचवस्तुक २७९, २८० 'किसी निमित्त का आलम्बन लेकर जो कुछ भी गीतार्थ आचरण करते हैं, थोड़ा दोष और अधिक लाभ हो वैसे कार्य प्रमाणभूत हैं ।
भगवान ने किसी भी वस्तु का निषेध नहीं किया या विधान नहीं किया, परन्तु किसी भी कार्य में सच्चे हृदय से रहो, यही भगवान की आज्ञा है।'
- पुष्टि एवं शुद्धि इन दोनों को ध्यान में रखें । ज्ञान एवं दर्शन की पुष्टि होनी चाहिये । दोषों (कर्मों) की शुद्धि होनी चाहिये । प्रत्येक अनुष्ठान में यह होने चाहिये ।
वैद्य विरेचन आदि देकर प्रथम शुद्धि करता है, उसके बाद वसन्त-मालती आदि के द्वारा पुष्टि करता है ।
साधु-जीवन की प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रमण, पडिलेहन, चैत्यवन्दन आदि सभी ज्ञान आदि की वृद्धि करने वाली हैं । सूक्ष्मता से देखें ।
कई क्रियाएं ज्ञान आदि की वृद्धि के लिए हैं, पुष्टि के लिए हैं । कई क्रियाएं कर्म की शुद्धि के लिए हैं ।।
• इरियावहियं-जीवमैत्रीसूत्र, तस्स उत्तरी-शुद्धिसूत्र और कायोत्सर्ग में लोगस्स ध्यानसूत्र है ।
• कायिक ध्यान - ठाणेणं - कायोत्सर्ग मुद्रा । वाचिक ध्यान - मोणेणं - लोगस्स मानसिक रूप से बोलना ।
मानसिक ध्यान - झाणेणं - मानसिक विचारणा, तीर्थंकरो क गुणों की ।
. कायोत्सर्ग तीर्थंकरों के द्वारा आचरित उत्कृष्ट ध्यान है। प्रश्न : कायोत्सर्ग में आत्मध्यान कहां आया ?
उत्तर : परमात्मा में आत्मा आ ही गया है । मन, वचन, काया तीनों को परमात्ममय ही बनाना है । परमात्मा अर्थात् परम (कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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