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आशीर्वाद देते हुए पूज्यश्री, सुरेन्द्रनगर, दि. २६-३-२०००
२८-८-१९९९, शनिवार
श्रा. सु. २
- साधुधर्म शीघ्र मुक्ति में जाने का उपाय है । श्रावक धर्म उनके लिए है जो अभी तक साधु धर्म के पालन में असमर्थ हैं, पालने के इच्छुक हैं, पर असमर्थ हैं ।
- हमारे भीतर आया हुआ गुण अन्य को दें तो वह अक्षय बनता है, आनन्दकर बनता है । लेने की अपेक्षा देने में अत्यन्त ही आनन्द होता है ।
परोपकारी स्व-पर, दोनों पर उपकार करता ही है । एक भी उपकार ऐसा नहीं है, जहां स्व-पर उपकार नहीं होता हो ।
कल्याण तो हमें अपनी आत्मा का ही करना है तो फिर छः जीवनिकाय के रक्षा की बात बीच में कहां से लाये ? उन जीवों की रक्षा के बिना आत्मकल्याण होता ही नहीं ।
अतः आज भगवती टीका में आया - संयम अर्थात् छः जीवनिकाय की रक्षा से पर रक्षा । संवर अर्थात् विषय-कषाय से स्वरक्षा ।
संयम पर रक्षार्थ है, संवर स्व-रक्षार्थ है । दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
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