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प्रथम प्रीतियोग, फिर भक्तियोग है और तीसरे नंबर में वचनयोग
पहले भगवान के साथ प्रेम करो, उसके बाद शास्त्रों पर प्रेम उत्पन्न होगा, आज्ञा पर प्रेम उत्पन्न होगा । भगवान के साथ प्रेम किये बिना आज्ञा एवं शास्त्र की बात केवल बकवास है ।।
स्थान, वर्ण आदि योग भी प्रभु-प्रेम हो तो ही सफल होते हैं । भगवान के साथ अभेद साधना हो तो देह का अभेद छोड़ना पड़ेगा।
__ एक खास बात यह है कि जिस समय जो क्रिया करते हों, उस समय आपका सम्पूर्ण उपयोग उसमें ही होना चाहिये । तो ही क्रिया फलदायक बनती हैं। ऐसी क्रिया प्रणिधान पूर्वक की कहलाती हैं। ___ हमारा लोभ भयंकर है । ओघा भी बांधते हैं और दूसरे भी दो-तीन कार्य साथ-साथ करते रहते हैं । एक भी कार्य अच्छा नहीं होता ।
समस्त इन्द्रियों का उपयोग एक ही कार्य में होना चाहिये ।
पडिलेहन के समय केवल नेत्र ही नहीं, कान, नाक आदि भी सावध होने चाहिये । कान, नाक आदि के द्वारा भी जीव जाने जा सकते हैं ।
. ज्ञानसार में जिस प्रकार साध्यरूप पूर्णता अष्टक प्रथम बताया गया है, उस प्रकार छ: आवश्यकों में भी सामायिक रूप साध्य प्रथम है। उसके साधन चतुविंशति स्तव आदि छ:ओं आवश्यक कार्य-करण भाव से जुड़े हुए हैं । _ वि.संवत् २०१६ में आधोई में उत्तराध्ययन जोग में मैं अस्वस्थ हो गया । यू.पी. देढिया ने बताया कि टी.बी. है। पलांसवा के सोमचंदभाइ ने कहा - टी.बी. नहीं है। उन्होंने औषधिओं के द्वारा मुझे नीरोग कर दिया । मैंने इसमें भगवान की कृपा देखी ।
. भगवान पर मैं क्यों जोर देता हूं ? मैं जोर नहीं देता । शास्त्र ही सर्वत्र भगवान को ही आगे करते हैं । मैं क्या करूं ?
कहे कलापूर्णसूरि - १********
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