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कला है । केवलज्ञान इसी देह में होगा । अयोगी गुणस्थानक इसी देह में मिलेगा।
देह को नहीं छोड़ना है, परन्तु उसकी आसक्ति छोड़नी है । काशी में जाकर करवत लेने की भगवान की आज्ञा नहीं है । देह में आत्मबुद्धि छोड़ने की भगवान की आज्ञा है ।
मकान में निवास वाला जिस प्रकार स्वयं को मकान से अलग देखता है, उस प्रकार देह से स्व को भिन्न देखो । यही वास्तविक योगकला है।
मकान जल रहा हो तब आप जलते नहीं है। मकान की अपेक्षा आपको अपने प्राण अधिक प्रिय है, परन्तु यहां यह बात भुला दी जाती है । आत्मा से देह प्रिय लगता है।
हम सब रोगी हैं । साधु हों या संसारी - सबका यहां उपचार चलता है । हम साधु होस्पिटल में भरती हुए हैं । हमें हमारा रोग अत्यन्त ही खतरनाक लगा है । आप श्रावक घर रह कर औषधि लेते हैं ।
रोगी को डाक्टर की बात माननी पड़ती हैं । औषधि नहीं ले, अपथ्य का त्याग न करे तो रोग कैसे मिटेगा ?
यहां भी यथाविहित व्रत-नियम आदि का पालन न हो तो कर्म रोग कैसे मिटेगा ?
प्रत्येक बात में तीर्थंकरों एवं शास्त्रों को सामने रखें, तो ही धर्म-कार्य की सिद्धि होगी ।
शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद्, वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्, नियमात् सर्वसिद्धयः ॥
- ज्ञानसार, शास्त्राष्टक सम्यक्त्वी प्रत्येक स्थान पर भगवान को, भगवान के शास्त्र को सामने अवश्य रखता है । पहले शास्त्र नहीं हैं, पहले भगवान का प्रेम है । इसी लिए प्रथम दर्शन, पूजा है । ये प्रभु-प्रेम के प्रतीक हैं । उसके बाद भगवान के शास्त्र भी प्रिय लगने लगेंगे ।
जिन्हें भगवान प्रिय नहीं लगे, उन्हें भगवान के शास्त्र भी प्रिय नहीं लगेंगे । वे पण्डित बन कर शास्त्र पढ़ें भले ही, परन्तु प्रभु के साथ वे डोर नहीं जोड़ सकेंगे । इसीलिए चार योगों में
*** कहे कलापूर्णसूरि - १)
२१० ****************************** कहे