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ज्ञानमय आत्मा स्वयं अपने को हड्डियां एवं विष्टायुक्त देह मानता है, यह कैसा ? योगाचार्य इसे अविद्या कहते हैं ।
आत्मा नित्य, शुचि, स्वाधीन है, देह अनित्य, अपवित्र और पराधीन है।
* मिथ्यात्व गये बिना प्राप्त द्रव्य चारित्र लाभदायक नहीं बनता । द्रव्य चारित्र वाला यहां भी उइंडता करता है ।
ॐ देव के साथ अभेद साधो या तो देह के साथ अभेद साधो । दो में से कहीं तो एकता करनी ही है। आपको कहां एकता करनी है ?
देह को पसन्द करना है कि देव को ? देव के लिए देह छोड़ना है कि देह के लिए देव को छोड़ना है ?
* बहिरात्मदशा - हेय । अन्तरात्मदशा - उपादेय । परमात्मदशा - ध्येय है ।
जब तक परमात्म-दशा प्रकट न हो तब तक परमात्मा को प्राण, त्राण और आधार समझ कर साधना करनी चाहिये ।
• शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा आदि लक्षण दिखने लगें तो समझें कि मिथ्यात्व का जोर घट रहा है, सम्यक्त्व का सूर्योदय हो रहा है ।
सम्यक्त्व को शुद्ध रखने के लिए दर्शनाचारों का पालन अत्यन्त आवश्यक है । प्रथम ज्ञानाचार है क्योंकि ज्ञान से तत्त्व दिखाई देते हैं और फिर उस प्रकार श्रद्धा हो सकती है ।
आत्मा के प्रमुख दो गुण हैं - ज्ञान, दर्शन, जिन में ज्ञान ही प्रधान है। गुण अनन्त आतम तणा रे, मुख्यपणे तिहां दोय । तेहमां पण ज्ञानज वडुं रे, जेहथी दंसण होय रे'
- विजयलक्ष्मीसूरि - आत्म-निरीक्षण करते रह कर नित्य देखना है - औषधि से कितने अंशों में रोग दूर हुआ ? धर्म से कर्म कितने अंशों में नष्ट हुए ? - देह में रह कर ही देह का मोह छोड़ना ही खास आध्यात्मिक
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