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को पूछने में आता था : कोई तकलीफ है ? पूज्यश्री सस्मित हाथ हिलाकर कहते थे : नहीं ।
____ पूरी रात आंखें खुली थी । पू. पं. कल्पतरु वि.ने पूछा : 'क्या करते है आप ?'
पूज्यश्री ने कहा : मैं श्वासोच्छ्वास के साथ ध्यान करता हूं । थोड़ी देर रह कर फिर उन्हें कहा : योगशास्त्र का १२वां प्रकाश सुनाओ ।
पू.पं. कल्पतरु वि. ने योगशास्त्र का १२वां प्रकाश सुनाना शुरु किया और जब यह श्लोक आया -
जातेऽभ्यासे स्थिरता... १२/४६
पूज्यश्री तब रुके और इसके चिन्तन में डूब गये । मानो पूज्यश्री के लिए श्लोक के ये शब्द समाधि के बटन थे, जिन्हें सुनते वे समाधिमग्न हो जाते थे ।
पृ.पं. कीर्तिचन्द्रविजयजी से भी पू. देवचन्द्रजी कृत चोवीशी का शीतलनाथ प्रभु का स्तवन सुना । उसमें जब यह गाथा आई :
सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन गुरु ! जाणुं तुम गुण-ग्राम जी; बीजुं कांई न मांगुं स्वामी ! एहिज छे मुज काम जी ।
_पूज्यश्री इस गाथा पर भी चिन्तन करते-करते प्रभु-ध्यान में डूब गये ।
पूज्यश्री हर श्वास के साथ 'नमो सिद्धाणं' पद का जाप दो रात से कर ही रहे थे ।
ऐसी परिस्थिति में भी सुबह-दोपहर १-१ घंटे तक प्रभु-भक्ति में वैसे ही मग्न बनते थे, जैसे प्रतिदिन बनते थे ।
४.३० बजे सुबह पूज्यश्री प्रतिक्रमण करने के लिए बैठे हुए । इरियावहियं, कुसुमिण कायोत्सर्ग के बाद मात्रु के लिए प्रयत्न किया, लेकिन नहीं हुआ। फिर जगचिंतामणि बोलने में देर लगने से पू.पं. कल्पतरुविजयजी ने बोल कर सुनाया । फिर मात्रु की शंका होने पर फिर गये, लेकिन मात्रु नहीं हुआ। उसके बाद इरियावहियं के काउस्सग्ग में चंदेसु निम्मलयरा तक पहुंचे और बार-बार इसी पद का मंद-मंद उच्चारण करते रहे । मुनिओं ने देखा : पूज्यश्री के हाथों में कुछ कंपन हो रहा है, दृष्टि निश्चल हो गई है। पू.पं. कल्पतरु वि.ने पू. कलाप्रभसूरिजी, पू.पं. कीर्तिचन्द्र वि. आदि को बुलाये । उन्हों ने परिस्थिति की गंभीरता देख कर आगे
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