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तसवीर से ही काम चला लेना ।' (वैसे तो पूज्यश्री गुजरात में नजदीक ही आ रहे थे, फिर भी ऐसा कहना क्या सूचित करता है ?)
वह आदमी उस वक्त ठीक से समझ नहीं पाया । उसने सोचा : शायद अभी मेरी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, टिकिट भाड़े का खर्चा न हो इसलिए पूज्यश्री मुझे मना कर रहे हैं।
का माघ शु. ३ को मांडवला से सिद्धाचलजी के संघ के संघपति परिवार (मोहनलालजी, चंपालालजी आदि मुथा परिवार) को कहा : 'बहुत उल्लास से संघ निकालें । मैं तुम्हारे साथ ही हूं।'
उस दिन तो संघपति परिवार को यह बात समझ में नहीं आई । घर में कुछ चर्चा भी हुई : बापजी ने ऐसा क्यों कहा? संघ में पूज्यश्री की ही तो निश्रा है तो 'मैं तुम्हारे साथ हूं' ऐसा कहने की जरुरत ही क्या है? लेकिन बापजी ने उत्साह में आ कर कहा होगा, ऐसा मान कर समाधान कर लिया ।
कोटकाष्टा अंजनशलाका का मुहूर्त माघ शु. १० संघ प्रयाण के बाद आता था । अत: चंपालालजी वहां जाने से हिचकाते थे । पूज्यश्री ने चंपालालजी को खास समझा कर कोटकाष्टा के लिए तैयार किये और कहा : जयपुर अंजनशलाका (वि.सं. २०४२) के प्रसंग को याद करना । उस वक्त चंपालालजी के भाई मदनलालजी की पत्नी का स्वर्गवास हुआ था । अत: गमनोत्सुक चंपालालजी को पूज्यश्री ने समझा कर रोके थे, और अंजनशलाका में विघ्न नहीं आने दिया था। यहां पर भी ऐसा ही हुआ । संघ के छ दिन पूर्व ही पूज्यश्री का स्वर्गगमन हुआ ।
र आखिर पूज्यश्री के कहे हुए अंतिम शब्दों को ही शुकन मान कर संघपति परिवार ने माघ शु. १० को मांडवला से पू.आ. श्रीमद् विजय कलाप्रभसूरिजी म.सा.की निश्रा में संघ निकाला । उस संघ में सब को पूज्यश्री की कृपा का प्रत्यक्ष प्रभाव देखने मिला ।
गुजरात में सर्वत्र तूफान था, कोमी दंगे थे, लेकिन संघ में कोई विघ्न नहीं आया । नहीं तो विघ्न के लिए किसी शरारती की ओर से थोड़ी सी आगजनी काफी थी। ___ अंतिम दो रात में पूज्य पं.श्री कल्पतरुविजय करीब-करीब पास में जागते रहे थे । माघ शु. ३ की अंतिम रात थी, पूज्यश्री की सांस दो दिन से जैसे चलती थी, वैसे ही चल रही थी । बार-बार पूज्यश्री
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