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. 'श्वासमांहे सो बार संभारूं' इस प्रकार हमारे पूर्वज कह गये हैं और हमारे में से अनेक केवल सांस देखने में पड़ गये । सांस मुख्य बन गया और परमात्मा उड गये । घड़ी को केवल देखनी नहीं है । उसके द्वारा सिर्फ समय ज्ञान प्राप्त करना है । कुछ व्यक्ति समयज्ञान छोड़ कर केवल घड़ी देखने में लग गये ।
एकाग्रता के बिना ध्यान नहीं होता । निर्मलता के बिना एकाग्रता नहीं आती । भगवान की भक्ति के बिना निर्मलता नहीं आती । जहां भगवान नहीं है वहां कुछ भी नहीं है। वह ध्यान नहीं है, बेहोशी हैं ।
. मोक्ष का सुख भले परोक्ष है, समता का यहीं है, प्रत्यक्ष है।
. जैसे हमारे पूर्वजन्म के संस्कार होंगे, हमें पुस्तके भी वे ही प्रिय लगेगी । इस समय संस्कारों का जो पुट हम देंगे, आगामी जन्म में वे ही हमारे साथ चलेंगे ।
. दक्षिण में जाकर लोगों की दृष्टि में भले ही हम शासनप्रभावक बने, परन्तु यह सब तुच्छ है । महात्मा तैयार हों, वही सच्ची शासन-प्रभावना है । महात्माओं को तैयार करने के लक्ष्य से ही 'वांकी' में चातुर्मास किया है। . . पू.पं. भद्रंकरविजयजी के पास तीन वर्ष रह कर प्रत्यक्ष देखने को मिला कि संघ के साथ, जीवों के साथ, मुनियों के साथ कैसा समतामय व्यवहार करना चाहिये । उनका जीवन मूर्तिमंत समता था ।
. मैं भगवान के भरोसे हं । कोई निश्चित नहीं होता कि क्या बोलना है ? मैं तो केवल प्रभु से प्रार्थना करता हूं - 'दादा ! तू बुलायेगा वैसा बोलूंगा । सभा के लिए योग्य हो वैसा मुझसे बुलवाना । वैसे ही शब्द तू मेरी जबान पर डालना ।'
. साम सामायिक मधुरता लाती है। मन-वचन-काया में उसकी झलक दृष्टिगोचर होती है। दिखावे की मधुरता नहीं, परन्तु जीवन का अंग होती है। इस मधुरता से देव-गुरु-आगमों आदि के प्रति भक्तिभाव प्रकट होता है, चतुर्विध संघ के प्रति बहुमानभाव प्रकट होता है।
******** कहे कलापूर्णसूरि - १
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