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हम उच्चारण करते हैं । सामायिक अर्थात् समता । इसके बिना साधना का प्रारम्भ नहीं हो सकता । झगड़ा करके आप माला गिन देखे, मन नहीं लगेगा । सरोवर में किसी भी स्थान पर एक छोटा सा कंकड़ फेंको, उसकी तरंगें सर्वत्र फैल जायेंगी, ठेठ किनारे तक फैल जायेंगी । सरोवर की तरह जगत् में भी अपने शुभ-अशुभ कार्यों की तरंगें फैलती हैं। जीवास्तिकाय एक है, दो नहीं । एसीलिए 'सव्वपाणभूअजीवसत्ताणं आसायणाए' - इस तरह पगामसज्जाय में कहा है, सकल जीवराशि से क्षमा याचना की है । समस्त जीवों पर मैत्री ही करनी है । कभी निर्गुणी के प्रति मध्यस्थता रखनी पड़े तो भी वह मैत्री एवं करुणा से युक्त ही होनी चाहिये ।
मुंबई जाकर प्रति वर्ष गृहस्थों की रकम बढती ही जाती है। साधु जीवन में इस प्रकार क्या समता बढती है ? साधु जीवन के अनुष्ठान ही ऐसे हैं जो समता की वृद्धि कराते हैं । 'तपोधनाः, ज्ञानधनाः, समताधनाः, खलु मुनयः' कहा गया है ।
ज्ञान की सम्पत्ति बढती हैं त्यों समता बढती है । इसीलिए ज्ञान के बाद 'शमाष्टक' ज्ञानसार में रखा है ।
पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनौषधम् । अनन्यापेक्षमैश्वर्यं, ज्ञानमाहुर्महर्षयः ॥
-ज्ञानसार - ज्ञानाष्टक . बचपन में मेरे पास दो ग्रन्थ आये थे - केशरसूरिकृत 'आत्मज्ञान - प्रवेशिका' और मुनिसुन्दरसूरिकृत 'अध्यात्म - कल्पद्रुम ।'
इन्हें पढने के बाद अध्यात्म की रुचि प्रकट हुई । मारवाड़ में पुस्तके बहुत कम मिलती थी । किसीने पुस्तकें लिखी तो हमारे काम आई । तो अपना ज्ञान भी अन्य के लिए उपकारक : बने, क्या वैसा कुछ नहीं करना ? गृहस्थों के पास धन सम्पत्ति हैं । वे उसे देते हैं । हमें ज्ञान प्रदान करना हैं ।
ज्ञान का वितरण करने से कभी घटता नहीं है, प्रत्युत बढता ही रहता है।
ज्ञान के अनुसार समता आती है, धनराशि के अनुसार ब्याज आता है। (कहे कलापूर्णसूरि - १ १ ****************************** १९५