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जितना जंगली एवं असभ्य होगा, कायदे-कानून उतने ही अधिक होंगे । कायदे-कानून का बढना, मनुष्य की बढती हुई असभ्यता का द्योतक है, विकास का नहीं ।
० पडिलेहण-गोचरी मौनपूर्वक होने चाहिये । गोचरी तो इस प्रकार होनी चाहिये कि पास में किसी को मालूम ही न पड़े कि यहां गोचरी आदि कुछ चल रहा है ।।
. साधु को क्रोध नहीं करने की प्रतिज्ञा देने का प्रश्न ही नहीं है । दीक्षा ग्रहण की तब से यह प्रतिज्ञा है ही । जब जब क्रोध आता है, तब-तब उस प्रतिज्ञा में अतिचार लगता है। साधु का नाम ही क्षमाश्रमण है । दस प्रकार के यति धर्मों में प्रथम धर्म क्षमा हैं । सामायिक का अर्थ समता होता हैं । समता का अभ्यास ज्यों-ज्यों बढता जाता है, त्यों-त्यों आनन्द बढता जाता
क्रोध से अप्रसन्नता और समता से प्रसन्नता की वृद्धि होती
सम्यक्त्व सामायिक एवं चारित्र सामायिक दीक्षा के समय ही स्पष्ट आलावा के उच्चारणपूर्वक उच्चराया जाता हैं । योगोद्वहन अर्थात् श्रुत सामायिक की साधना ।
संक्लेश संसार का एवं समता मोक्ष का मार्ग है 'क्लेशे वासित मन संसार, क्लेश-रहित मन ते भवपार ।'
संक्लेश से चौदह पूर्वी निगोद में गये हैं और असंक्लेश से 'मारुष मातुष' वाक्य को भी स्मरण नहीं रख सकने वाले माषतुष मुनि केवलज्ञानी बने है ।
. जिस प्रकार नरक का जीव नरक से, कैदी कैद से भाग छूटना चाहता है, उस प्रकार से मुमुक्षु संसार से छूटना चाहता है । करोड़पति का पुत्र भी विषयों को विष-तुल्य माने ।
पांच लक्षण भीतर रही उत्कट मुमुक्षुता को बताते हैं : १. शम : गुरु चाहे जितने कटु वचन कहें, परन्तु वह
क्रोधित नहीं होगा । २. संवेग : मोक्ष की तीव्र इच्छा अर्थात् आत्म-शुद्धि की
तीव्र इच्छा होगी ।
१९२ ****************************** कहे