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भक्ति
इस विषम काल में यदि प्रभु भक्ति मिल गई तो समझना कि भव सागर का किनारा आ गया ।
'एकबार प्रभु वन्दना रे, आगम रीते थाय' 'इक्को वि नमुक्कारो' एक बार भी प्रभु की झलक दिख जाये तो जीवन सफल ।
भगवान के दर्शन भी उसे ही प्राप्त होते हैं, जिसमें विरहाग्नि हो । विरह जितना उत्कट होगा, मिलन उतना ही मधुर होगा । प्यास जितनी उत्कट होगी, जल उतना ही मधुर लगेगा । भूख जितनी उत्कट होगी, भोजन उतना ही मधुर एवं स्वादिष्ट लगेगा। 'दरिसण दरिसण रटतो जो फिरूं, तो रणरोझ समान'
आनन्दघनजी की उपर्युक्त पंक्ति में प्रभु-विरह कितना उत्कट दिख रहा है ?
हम प्रभु-विरह के बिना प्रभु-दर्शन पाना चाहते हैं । गर्मी के बिना बादल भी नहीं बरसता तो प्रभु कैसे बरसे ? इस समय शीतल वातावरण है, थोड़ी भी गर्मी नहीं है तो बादल कहां बरसता है ?
प्रभु-मिलन (केवलज्ञान-प्राप्ति) तो क्षणभर में ही, अन्तर्मुहूर्त में ही होने वाला है, परन्तु उसके लिए जन्म-जन्म की साधना चाहिये, प्रभु-विरह की उत्कट तड़पन चाहिये ।
• यथाप्रवृत्तिकरण यों असंख्य प्रकार से है, परन्तु मुख्य दो प्रकार हैं - चरम यथाप्रवृत्तिकरण एवं अचरम यथाप्रवृत्तिकरण ।
असंख्य यथाप्रवृत्तिकरण होने के बाद अन्तिम ऐसा यथाप्रवृत्तिकरण आता है जो उसे अपूर्वकरण में ले जाता है । अपूर्वकरण ऐसा वज्र है, जो राग-द्वेष की तीव्र गांठ को छेद डालता है । राग-द्वेष की गांठ के भेदन के बाद प्रभु के दर्शन होते हैं जैसे बादल हटने पर चन्द्रमा के दर्शन होते है ।
. हरिभद्रसूरि का वचन अर्थात् आगम-वचन । हरिभद्रसूरि के बाद हुए प्रत्येक आचार्य ने ऐसी मुहर लगा दी है। वे कैसे गीतार्थ एवं शासन समर्पित महापुरुष होंगे ? उनके ग्रन्थ पढो । आपको उनका हृदय पढने को मिलेगा ।
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