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झर, वि.सं. २०५१
२०-८-१९९९, शुक्रवार
श्रा. सु. ९
० श्रावक की समग्र प्रवृत्ति चारित्रावरणीय कर्म के क्षय के लिए ही होनी चाहिए । कभी प्रसंग आने पर वह दीक्षा अंगीकार करने के लिए तैयार हो जाय । प्रव्रज्या के बाद प्रतिदिन साधु की दिनचर्या कैसी हो, यह जानने का श्रावक का अधिकार है।
. पडिलेहन : साधु कोई भी वस्तु पडिलेहन किये बिना काम में नहीं ले । गोचरी के लिए जाते समय भी वह दृष्टि - पडिलेहन करे । एक बार गुरु ने शिष्य को इस सम्बन्ध में थोड़ा सचेत किया ।
शिष्य को हुआ कि बार-बार क्या देखना है ? अभी तो मैंने देखा है।
झोली खोली तो भीतर बिच्छु था ।
कई बार देखे बिना तरपणी ले जाते समय भीतर डोरा, पूंजणी आदि पड़े रहते है। अनेक बार ऐसा होता है। अतः देखना आवश्यक है।
मैं छोटा था । स्थंजिल जाने की उतावल थी । गंजी उतार कर कील पर टांग दिया । पांच-दस मिनिट के बाद वैसे ही पहन लिया । देखा तो छ: इंच लम्बा बिच्छु था, परन्तु उसने डंक नहीं [१८८ ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)