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- भगवान की उपस्थिति में कर्म (मोहराजा) टिक नहीं सकते । सूर्य की उपस्थिति में जैसे अन्धकार नहीं ठहर सकता । प्रभु के सान्निध्य में अधिकाधिक रहें, आपकी समस्त समस्या हल हो जायेगी । हम प्रभु से जितने दूर रहेंगे, संकट उतने समीप रहेंगे । हम प्रभु के जितने समीप होंगे, संकट उतने दूर रहेंगे । आप इस बात को हृदय पर वज्र के अक्षरों से लिख डालो ।
पंचवस्तुक साधु प्रभु की आज्ञानुसार जीने वाला साधक है, खसठ (प्रमादी साधु) नहीं है । खसठों के लिए पू. जीतविजयजी कहते - 'भरुच के पाडे बनना पड़ेगा ।' ऊंचा-नीचा भरुच देखा है न ? उस समय वहां नल नहीं थे । भिश्ती पखालों में पाडों पर पानी लाते थे । ऐसी हित-शिक्षाएं दे-देकर पू. जीतविजयजी ने वागड समुदाय की वाटिका में कनक - देवेन्द्रसूरि जैसे पुष्पों का सृजन किया था ।
. साधु दिन में कितनी बार 'इरिया वहियं' करते है ? दस-पन्द्रह बार भी हो जाय । 'इरियावहियं' मैत्री का सूत्र है । कोई भी अनुष्ठान, जीवों के साथ टूटी हुई मैत्री का तार पुनः जुड़ जाने पर ही सफल होता है - यह बताने के लिए 'इरियावहियं' की जाती है । नवकार नम्रता का, करेमि भंते समता का, उस प्रकार इरियावहियं मैत्री का सूत्र है ।
. लोह डूबता है, लकड़ा तैरता है, लकड़े का आलम्बन लेने वाला भी तरता है । धर्मी तरता है, अधर्मी डूबता है, धर्मी का आलम्बन लेने वाला भी तर जाता है ।
जिस धर्म को भगवान भी नमस्कार करते हैं, वह धर्म भगवान से महान् गिना जाता है । भगवान भी धर्म के कारण महान् हैं । धर्म महान् या तीर्थंकर महान् ? इस प्रश्न का उत्तर यह है । तीर्थंकर केवल अमुक समय तक ही देशना देते हैं । शेष समय में आधार किसका ? धर्म का । भगवान या गुरु निमित्त कारण ही बन सकते हैं । उपादान कारण तो हम ही हैं। पुरुषार्थ तो हमें ही करना पड़ेगा ।
पुरुषार्थ में रुकावट डालने वाला प्रमाद है । आपको किस पर विश्वास है ? प्रमाद पर विश्वास है कि पुरुषार्थ
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