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संघ में चैत्यवंदन, बेंगलोर के पास, वि.सं. २०५१
१९-८-१९९९, गुरुवार श्रा. सु. ८
✿ श्री संघ में, तीर्थ में भगवान ने अपनी शक्ति इस प्रकार भरी जिससे इक्कीस हजार वर्ष तक चले । उस तीर्थ की सेवा हम करें तो उस शक्ति का संक्रमण हम में हो जाये ।
यदि रावण के अभिमान से, दुर्योधन के क्रोध से रामायणमहाभारत का सृजन हो सकता हो तो क्या गुणों का सृजन नहीं हो सकता ? दुर्गुणों की अपेक्षा क्या गुणों की शक्ति कम है ? एक संगीतकार, शिल्पकार, शिक्षक कितनों को तैयार करता है ? तो एक तीर्थंकर कितनों को पहुंचा सकेंगे ? भगवान आदिनाथ का केवलज्ञान असंख्य पाट-परम्परा तक चलता रहा ।
सम्यग्दर्शन होने पर जीव को ख्याल आता है ✿ मैं बैं- बैं करती बकरी नहीं हूं । मैं मोती का चारा चुगने वाला हंस हूं, गर्जना करने वाला केसरी सिंह हूं । मैं जन्म-मरण के चक्कर में पिसने वाला पामर कीट नहीं हूं, परमात्मा हूं ।
'अजकुलगत केसरी लहे रे, तिम प्रभु भक्ते भवी रहे रे,
निज पद सिंह निहाल । आतम शक्ति संभाल ॥'
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- पू. देवचन्द्रजी *** कहे कलापूर्णसूरि - १