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है ।
इससे भी आगे बढकर गुरु प्रभु के साथ मिलन करा देते
लोच, विहार आदि के द्वारा विकसित सहनशीलता आजीवन काम आती है । उसके बाद थोड़ा सा दुःख विचलित नहीं कर
सकता ।
भक्ति :
हम जैन साधुओं के रूप में पहचाने जाते हैं । जैन साधु अर्थात् जिन का साधु । जिस भगवान से हम पहचाने जाते हैं, उसी भगवान को हम भूल जायें तो क्या कृतघ्न नहीं कहलायेंगे ?
साधु किसी भी घर पर भिक्षा लेने जाये, कोई चार्ज नहीं । सुलभता से गोचरी आदि मिल जाय । यह किसका प्रभाव है ? भगवान का प्रभाव है । उस भगवान को हम कैसे भुला सकते हैं ?
भगवान विद्यमान थे तब भी लोग अपने हृदय में उनका नाम ही रखते थे, स्थापना के द्वारा ही उपासना करते थे । भगवान के मोक्ष-गमन के बाद भी नाम एवं स्थापना में कोई फरक नहीं पड़ा । वे तो वही के वही हैं । उनकी कल्याण-कारकता भी वही है । भगवान के प्रति भक्ति नहीं जागती हो तो मानें कि मैं दीर्घ संसारी हूं । अल्पकालीन संसार वाले को भगवान प्रिय लगते ही हैं । अल्पकाल में जो स्वयं भगवान बनने वाला है, उसे भगवान प्रिय न लगें, यह कैसे चलेगा ? जिसे भगवान प्रिय न लगें वह भगवान नहीं बन सकता ।
यशोविजयजी तो यहां तक कहते है 'मुक्ति से भी मुझे भक्ति प्रिय है । जहां भक्ति न हो ऐसी मुक्ति से मुझे क्या काम है ?'
भक्त समस्त जीवों में भी धीरे-धीरे भगवान देखता है । आज वह भगवान नहीं है, परन्तु कल वह भगवान बनने वाला ही है । जीव शिव ही है । आज का बीज, कल का वृक्ष है । माली बीज में वृक्ष देखता है । भक्त जीव में शिव देखता है । यत्र जीवः शिवस्तत्र न भेदः शिव - जीवयोः । न हिंस्यात् सर्व-भूतानि, शिव-भक्ति- समुत्सुकः ॥
अन्य दर्शन
*** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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