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ही जायेगा ।
* सौराष्ट्र के खेरवा गांव में समस्त अजैन लोग जैन साधु को भावपूर्वक भिक्षा प्रदान करते हैं । आचार्यों का सामैया भी करते हैं । जब उन्हें पूछा गया कि सब कहां गये ? एक वयोवृद्ध व्यक्ति ने कहा, 'धंधे के लिए सब बाहर गये हैं, मैं यहां रुका हूं और यहीं पर रहूंगा । साधु-साध्वियों की भक्ति के लिए मैं यहां रुक गया हूं। मेरे पिताजी यही चाहते थे । आज जो हमारी अच्छी स्थिति है तो इस सेवा-भक्ति के कारण ही है ।
आज कोई जैन बच्चा भी ऐसा मिलेगा कि जो सेवा-भक्ति के खातिर गांव में रुके, गांव न छोड़े ?
भक्ति : धनाढ्य या सुखी हो उसके कारण मनुष्य आदरणीय नहीं बनता, परन्तु यदि वह परोपकारी, दानी हो तो आदरणीय अवश्य बनता है।
भगवान सिर्फ गुणवान या ज्ञान-समृद्ध ही नहीं हैं, परन्तु वे परोपकारी एवं दानी भी हैं । उनके गुण विनियोग के स्तर तक पहुंच चुके हैं ।
भगवान ने सबको दान दिया तब वह ब्राह्मण बाहर गया था । भगवान के दीक्षा ग्रहण करने के बाद निर्धन स्थिति में ही वह अपने आवास पर आया । पत्नी के कहने से भगवान के पास मांगने के लिए जाने पर मुनि-अवस्था में भी भगवान ने उसे वस्त्र का दान दिया । सहज परोपकार की वृत्ति के बिना ऐसा नहीं हो सकता ।
प्रभु के नाम में भी उपकार की शक्ति है - 'प्रभु नाम की औषधि, सच्चे भाव से खाय । रोग-शोक आवे नहीं, दुःख-दोहग मिट जाय ॥' परन्तु अटूट श्रद्धा होनी चाहिये ।
. हमारा संसार का प्रेम परिवर्तित होकर यदि प्रभु पर प्रवाहित होने लगे तो समझ लेना कि साधना का मार्ग खुल गया है ।
___ 'प्रगट्यो पूरण राग, मेरे प्रभु शुं प्रगट्यो ... ।' ।
प्रभु ! मेरे हृदय में आपके प्रति जो प्रेम की बाढ आई है, उसकी तुलना समुद्र के साथ करूं कि नदी के साथ करूं ?
चन्द्रमा भले आकाश में है, चांदनी धरती पर है और समुद्र कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** १७३)