________________
उत्तर : साधु जो भूख-प्यास सहते है, उसमें उन्हें संक्लेश नहीं होता, परन्तु आनन्द होता है, क्योंकि वे जानते है कि इससे असाता वेदनीय आदि कर्मों का क्षय होता है । अरे, कई बार तो जान-बूझकर उपवास आदि करके वे भूख सहन करते है। भगवान का छद्मस्थ जीवन देखें । कितनी कठोर तपस्या ?
यद्यपि यह तप सबके लिए अनिवार्य नहीं है । जैसी जिसकी शक्ति और भावना । केवल लोच अनिवार्य है। यह धैर्य एवं सत्त्व बढाने के लिए है । लोच आदि के काय-क्लेश से साधु पापकर्म की उदीरणा करते है । भविष्य में आने वाले पाप-कर्मों को अभी से ही उदय में लाकर नष्ट करने से भावि के उतने पापकर्मों का क्षय हो जाता है, जिससे साधु आनन्द मानते है ।
• कालग्रहण में शीघ्र उठना, सावधानी रखना आदि क्यों ? क्योंकि ऐसी प्रक्रिया में से गुजरने पर, उसके बाद भी ऐसी जागृति एवं ऐसा अप्रमाद बना रहे । योगोद्वहन में जागृति के संस्कार डाले जाते हैं ।
__ व्याधि मिटाने के लिए रोगी कड़वे उकाले, औषधियों आदि प्रेम से लेते हैं, उपवास करते हैं, परहेज पालते हैं, उस प्रकार यहां भी साधु सब प्रेम से करते है क्योंकि वे कर्म-रोग नष्ट करना चाहते है ।
कड़वी औषधि नहीं पिये, गरिष्ट भोजन करे, परहेज न पाले तो रोगी की क्या दशा होगी ? रोग की वृद्धि होगी । अनुकूलता से हमारा कर्म-रोग बढता है ।
दाल-सब्जी का ठिकाना न हो, रोटी पेट में जाये ही नहीं ऐसी हो, उस समय क्या आपको आनन्द होगा ? सच्च कहना । सचमुच आनन्द होना चाहिये । शुद्ध गोचरी से आनन्द आना चाहिये ।
उद्वेगपूर्वक आहार लो तो धूम्र दोष लगता है, याद है न ? ___अनुकूल भोजन हो परन्तु निर्दोष न हो, तब मन की स्थिति कैसी होती है ? मन में गुप्त आनन्द होता हो तो भी सचेत हो जाना ।
. भगवान का प्रभाव तो देखो । किसी भी स्थान पर जैन साधु को आहार-पानी प्राप्त न हो ऐसा हो ही नहीं सकता.। वहां एक भी जैन परिवार न हो तब भी आहार-पानी प्राप्त हो
***** कहे कलापूर्णसूरि - १
१७२ ****************************** कहे