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बेंगलोर- राजाजीनगर प्रतिष्ठ-प्रसंग, वित
१४-८-१९९९, शनिवार
श्रा. सु. ३
- देवों की तरह हरिभद्रसूरिजी का असंख्यात वर्ष का आयुष्य नहीं था । हमारे जितना ही था । वे शासन के, संघ के, व्याख्यान के विहार आदि के कार्य भी करते ही थे, फिर भी अल्प जीवन में उन्होंने जो विराट कार्य किया है, उसे देख कर मस्तक झुक जाता है उनके चरणों में ।
• 'श्रावकों की अपेक्षा हमारा जीवन श्रेष्ठ है । कम से कम हम भीख तो नहीं मांगते । यहां हम दान पुन्य आदि करते हैं और वहां लोच आदि के कितने अधिक कष्ट ?' ऐसा विचार करने वाला वर्ग पहले था यह बात नहीं है, आज भी है ।
. हम साधु भी कभी कभी घृणा के कारण सोचते हैं कि इसकी अपेक्षा तो दीक्षा ग्रहण न की होती तो... ऐसे विचारों से भवान्तर में भी चारित्र नहीं मिलेगा, ऐसा कर्म हम बांध लेते है ।
. हम चाहते हैं - उसे स्वभाव बदलना चाहिये । मैं कहता हूं - यह असम्भव है । हमारा स्वभाव हम बदल सकते हैं । यह अपने हाथ में है । सृष्टि नहीं बदली जा सकती, दृष्टि बदली जा सकती है । गांव नहीं बदला जा सकता, गाडी बदली जा (कहे कलापूर्णसूरि - १ ****
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