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सकती है । परिस्थिति नहीं बदली जा सकती, मनःस्थिति बदली जा सकती है।
. अन्य को जो दें वह अपने लिए सुरक्षित हुआ समझें । धन, ज्ञान, सुख, जीवन, मृत्यु, दुःख, पीड़ा आदि सभी ।।
हम अन्यों को ज्ञान दें तो अपना ज्ञान सुरक्षित । हम अन्य को धन दें तो अपना धन सुरक्षित । अन्य को सुख प्रदान करें तो अपना सुख सुरक्षित । अन्य को जीवन दें तो अपना जीवन सुरक्षित । * स्वयं जो तर सकता है वही दूसरों को तार सकता है ।
स्वयं आंखों से देखने वाला व्यक्ति ही अन्य व्यक्तियों को मार्ग बता सकता है ।
स्वयं गीतार्थ मुनि ही अन्य व्यक्तियों को मार्ग बता सकते हैं।
. हरिभद्रसूरिजी का कथन है कि महा पुन्योदय हो तो ही प्राप्त सामग्री का त्याग करके साधुत्व स्वीकार करने की इच्छा होती है।
. दीक्षा अंगीकार करने के बाद भी किसी भी प्रकार की आकांक्षा प्रतिबंधक है । तपस्वी, विनयी, सेवाभावी, शान्तमूर्ति, भद्रमूर्ति, विद्वान, प्रवचनकार आदि के रूप में अपनी प्रतिष्ठा खड़ी करने की वृत्ति साधुता में रुकावट बनती है ।
* संसार स्वार्थमय है । व्यापारी भले ही कहे - 'आप घर के हैं, आपके पास कैसे ले सकते हैं ? परन्तु सचमुच तो वह लिये बिना रहेगा ही नहीं । सुनार जैसा तो सगी बहन या पुत्री को भी नहीं छोड़ता ।
गृहस्थ जीवन में आरम्भ - परिग्रह, हिंसा, असत्य आदि के बिना चलता ही नहीं । इन सबका त्याग किये बिना पंच परमेष्ठियों में से एक भी पद प्राप्त नहीं होता ।
हिंसा, असत्य आदि से युक्त संसार महा पुन्योदय तो ही छोड़ने की इच्छा होती है ।
विष-मिश्रित अन्न की तरह अनुकूलताएं परिणाम में भयंकर विपाक देने वाली हैं और इस कारण ही वे त्याज्य हैं ।
संयम एवं समाधि के सुख का जो साधु अनुभव करते हैं
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