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छोड़ने की इच्छा होती है। ऐसे मत का हरिभद्रसूरिजी ने 'पंचवस्तुक' में निराकरण किया है।
अठारहों पापों का त्याग करने वाले को पुण्यशाली कहें कि पापी ? यह पुण्योदय है कि पापोदय ? हरिभद्रसूरि प्रश्न को मूल में से पकड़ते हैं - पुन्य क्या है ? पाप क्या है ? असंक्लेश अर्थात् पुन्य, संक्लेश अर्थात् पाप । गृहस्थों के पास चाहे जितनी समृद्धि हो, फिर भी संक्लेश न हो, ऐसा होता ही नहीं है । समृद्धि अधिक होगी तो संक्लेश अधिक होगा । जहां संक्लेश हो, आसक्ति हो, वहां पुन्योदय कैसा ?
सामग्री में आसक्ति हो तो समझें पापानुबंधी पुन्य । चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का पुन्य कितना था ? समृद्धि कितनी थी ? परन्तु आसक्ति कितनी थी ? वह आसक्ति उसे कहां ले गई ? सातवी नरक में ले गई ।
'परस्पृहा महादुःखं, निःस्पृहत्वं महासुखम्' सुख एवं दुःख की यह सीधी, सरल व्याख्या है ।
इच्छा से प्राप्त होने वाली वस्तु दुःख ही प्रदान करती है । बिना इच्छा के सहज ही प्राप्त हो जाये उसमें निर्दोष (अनासक्त) आनन्द होता है। __ संसार की प्राप्ति इच्छा के द्वारा होती है ।
इच्छा का त्याग करने से मोक्ष प्राप्त होता है । वास्तव में ते इच्छा का त्याग ही मोक्ष है।
इच्छा स्वयं बन्धन है, संसार है । इच्छा का त्याग मोक्ष है ।
. अभी छ: महिने पूर्व नई मुंबई नेरूल में अंजन शलाका के समय छोटे बालकों ने एक नाटक किया था - 'टेन्शन-टैन्शन' जिसमें बताया था कि सभी (वकील, डाक्टर, श्रेष्ठी) टैन्शन वाले हैं, केवल साधु ही टेन्शन मुक्त हैं ।
दीक्षित को कोई टैन्शन है ? नो टेन्शन, नो टेन्शन, नो टेन्शन ।
विषयों की इच्छा भी दुःखदायी है तो विषयों का सेवन तो पता नहीं क्या करेगा ?
जिस वृक्ष की छाया भी कष्टदायी हो तो, उस वृक्ष के फलों की बात ही क्या ?
कहे कर
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