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निर्णय आपको करना है - स्पृहा चाहिये कि निःस्पृहता ? एकान्त में थोड़ा सोचें, आत्मा को पूछे ।
जो टेन्शन, जो प्रयत्न, जो कष्ट आप संसार के मार्ग में सहन करते हैं, उसमें से थोड़ा सा पुरुषार्थ यदि साधना के मार्ग में किया जाय तो?
प्रश्न हो सकता है : संसार की जिस प्रकार इच्छा है, उस प्रकार मोक्ष की भी इच्छा है । तो फरक क्या पड़ा ?
हम कहते हैं - आप 'मोक्ष क्या है' यह भी समझे नहीं है। मोक्ष अर्थात् इच्छा का त्याग । समस्त प्रकार की इच्छाएं मिटने पर ही मोक्ष प्राप्त होता है ।
इच्छा और मोक्ष ? दोनों परस्पर विरोधी हैं । हां, बहुत तो आपकी भाषा में इतना कहा जा सकता है कि मोक्ष अर्थात् इच्छा रहित होने की इच्छा । यद्यपि बाद में तो इच्छा रहित बनने की इच्छा का भी त्याग करना पड़ता है।
असद् इच्छा को जीतने के लिए सद् इच्छा की आवश्यकता होती है । दीक्षा ग्रहण करके अध्ययन करने की, तप करने की या साधना की इच्छा होनी ही चाहिये ।।
प्रश्न : साधु इतने कष्ट सहन करे तो उन्हें आत्मिक अनुभूति का सुख, अनारोपित सुख कैसा होता है ? कितना होता है ?
उत्तर : संसार का सुख आरोपित है । किसी भी वस्तु में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना अविद्याजनित है । सचमुच, कोई भी वस्तु सुख या दुःख देने वाली नहीं है। हमारी अविद्या वहां सुख या दुःख का आरोपण करती है । इसे आरोपित सुख कहते हैं ।
इस दृष्टि से साता वेदनीय - जनित सुख भी ज्ञानियों की दृष्टि में सुख नहीं है, परन्तु दुःख का ही दूसरा स्वरूप है ।
जो आपको अव्याबाध आत्मिक सुख से रोकता है, उस सुख को (वेदनीय - जनित सुख को) श्रेष्ठ कैसे माना जाये ?
आपके एक करोड़ रूपये दबा कर कोई व्यक्ति केवल पांचदस रूपये दे कर आपको प्रसन्न करने का प्रयत्न करे तो क्या आप प्रसन्न होंगे ? यहां हम वेदनीय कर्म द्वारा प्रदत्त सुख से प्रसन्न हो रहे है । ज्ञानियों की दृष्टि में हम अत्यन्त दयनीय स्थिति में हैं।
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