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- बैंगलोर-सजाजीनगर में प्रवेश, वि.सं. २०५२ -
१२-८-१९९९, गुरुवार
श्रा. सु. १
है जो ग्रन्थ हम पढ रहे हों, उसके प्रणेता के प्रति आदर बढने से हम उस ग्रन्थ के रहस्यों को समझ सकते हैं ।
वास्तव में तो ज्ञान नहीं पढना है, विनय पढना हैं । गुरु नहीं बनना हैं, शिष्य बनना है ।।
इसमें ज्ञान की अपेक्षा विनय आगे बढ जाये, तो मैं क्या करूं ? ज्ञानियों ने ही विनय को इतनी प्रतिष्ठा दी है। आप दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि का अवलोकन कर लें ।
डीसा में एक माली नित्य व्याख्यान में आता । एकबार उसने कहा, 'जिन प्रश्नों को पूछना चाहता हूं, उनका उत्तर स्वयमेव व्याख्यान में मिल जाता हैं । ऐसा अनेक बार मुझे अनुभव हुआ है। यह प्रभाव व्यक्ति का नहीं, जिनवाणी का प्रभाव है ।।
जिनवाणी के प्रति बहुमान की वृद्धि होनी चाहिये । अब तक संसार में क्यों भटके ? 'जिणवयणमलहंता' जिन-वचन प्राप्त किये बिना ।
- एक ऐसा मत भी है जो मानता है कि साधु की अपेक्षा गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है । 'धन्यो गृहस्थाश्रमः ।' पाप के उदय से उसे [१५२ ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)