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सब कुछ सुलभ है, भक्ति दुर्लभ है । महा पुन्योदय से ही भगवान के प्रति प्रेम जागृत होता है, उसके बाद भक्ति बढती है और फिर उनकी आज्ञापालन करने की इच्छा होती है ।
प्रभु के प्रति सच्चा प्रेम भक्त को साधु बनाता है, अन्त में प्रभु बनाता है, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
ईयल भ्रमरी के ध्यान से भ्रमरी बनती है, उस प्रकार प्रभु का ध्यान करने वाला प्रभु बनता है । वैसे भी प्राकृतिक नियम है : जो जिसका ध्यान करता है, वह वैसा बनता ही है । जड़ का ध्यान करने वाला यहां तक जड़ बनता है कि वह एकेन्द्रिय में पहुंच जाता है। आत्मा की सब से अज्ञानावस्था एकेन्द्रिय में है । मर कर ऐसा वृक्ष बने जो अपने मूल निधान पर फैलाता है । अमुक वनस्पति के लिए कहा जाता है कि उसकी जड़ों के नीचे निधान होता है
आगम से भाव निक्षेप से, जितने समय तक आप प्रभु का ध्यान करते हैं, उतने समय तक आप प्रभु ही हैं ।
उस पुत्र-वधू ने आगन्तुक को कह दिया कि सेठ मोची वाड़े में गये है । वास्तव में तो सेठ सामायिक में थे, परन्तु उनका मन जूतों में था, मोची वाड़े में था वह बहू समझ गई थी ।
जहां हमारा मन होता है, उस रूप में ही हम होते हैं ।
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'हमणा पोणा नव वागे ज आघातजनक समाचार मळ्या के वश पू. आचार्यश्री कलापूर्णसरिजी महाराज केशवणा मुकामे सवारे ७.२० वागे काळधर्म पाम्या छे' समाचार सांभळी दिल धडकी गयु... खेद थयो... वर्तमानकाळमां पहेली हरोळना श्रेष्ठ आचार्य भगवन्त परमात्माना अद्भुतभक्त, जब्बर पुण्यना स्वामी - आराधक आचार्यदेवनी श्रीसंघने न पुराय तेवी खोट पड़ी गई. अनेक अमंगळ एंधाणीओमां पूज्यश्रीनी उपस्थिति ज अमंगळोने दूर करनारी हती ।
- एज... उपा. विमलसेनविजय
पंन्यास नंदीभूषणविजय
__म.सु. ५, मलाड. "
कहे कलापूर्णसूरि - १
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