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उत्तर : आप कहते हैं 'पाप के उदय से दीक्षा मिलती है।' हम पूछते हैं - 'पुन्य-पाप किसे कहते है ?' 'भोगते समय संक्लेश हो वह पाप, और साता (शान्ति) रहे वह पुन्य ।' यही सच्चा लक्षण है । पुन्यानुबंधी पुन्य के उदय से ही गृहस्थ-जीवन का त्याग होता है । पुन्यानुबंधी पुन्य का उदय हो वही संसार छोड़ सकता है ।'
पुन्य-पाप की संक्लेश - असंक्लेश रूप यह व्याख्या की । अब सोचो - अधिक संक्लेश तो गृहस्थ-जीवन में है। साधु को संक्लेश का अंश भी नहीं है । बाहर से आनन्दमय प्रतीत होते पूंजीपति भीतर से कितने दुःखी होते हैं - क्या आप यह जानते
संसार के सबसे धनाढ्य व्यक्तिने एक प्रश्न के उत्तर में कहा था, 'संसार में सर्वाधिक दुःखी मैं हूं । यहां सुख कहां है ?'
मुमुक्षुपन में मैं जोधपुर में एक घर पर गया । उस धनाढ्य व्यक्ति ने मेरा सम्मान करके मुझे शत-शत धन्यवाद देकर कहा, 'आप सच्चे मार्ग पर हैं । हमारे तो धन्धा बढ़ गया है त्यों-त्यों चिन्ता का पार रहा नहीं । चिन्ता... चिन्ता... चिन्ता... । वह व्यक्ति जोधपुर का अत्यन्त धनाढ्य व्यक्ति था ।
शशिकान्तभाई : आज उद्योगपति-उद्वेगपति हैं ।
एक भाई सुखी व्यक्ति को ढूंढने के लिए निकला । सुखी में सुखी जैन साधु है यह जान कर, अत्यन्त भटक कर जैन मुनि जंबूविजयजी म. के पास पहुंचा । दो दिनों तक उसने साधु-चर्या का निरीक्षण किया, फिर पूछा, 'आजिवीका का क्या प्रबन्ध है ? पुंजी कितनी है ?' ___'हम न पैसे रखते हैं, न पैसों का स्पर्श करते हैं । न स्त्री का स्पर्श करते हैं, न पानी का । संघ की व्यवस्था ही ऐसी है कि हमें भोजन की चिन्ता नहीं रहती ।' यह सुनकर वह व्यक्ति स्तब्ध हो गया ।
मुझे भी कहा गया । 'आप दीक्षा अंगीकार करते हैं ? वह भी गुजरात में ? वहां क्या है ? साधु तो अपने-अपने दांडों से लड़ते हैं।'
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