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वाचना देने के बाद पूछा, 'वाचना कैसी लगी ?'
'सरस' ।
उसके बाद कालिकाचार्य ने अंजलि में से झरते जल की तरह हमारे भीतर पेढी-दरपेढी ज्ञान घटता जा रहा है, यह समझाया । तीर्थंकर भी अभिलाप्य पदार्थों में से अनन्तवां भाग ही कह सकते हैं । उसका अनन्तवां भाग शिष्य-प्रशिष्य आदि क्रमशः ग्रहण करते रहें । ऐसे अल्प ज्ञान का अभिमान क्या ?
उसके बाद शिष्य परिवार आने पर सागराचार्य को पता लगने पर चरणों में गिर कर क्षमा याचना की । तब तक तो 'ये वृद्ध मुनि हैं' यही मान बैठे थे ।
. देववन्दन, चैत्यवन्दन आदि के बिना दीक्षा-विधि नहीं होती । इसका अर्थ यही की भक्तिमार्ग ही विरति का प्रवेशद्वार है।
दीक्षा जीवन में चार बार सज्झाय ज्ञानयोग के लिए, सात बार चैत्यवन्दन भक्तियोग के लिए है । वह बताता है कि भक्ति ज्ञान से महान् है।
प्रश्न : उत्तम, आनन्ददायक सामग्री ऋद्धि-समृद्धि होने पर भी पापोदय के कारण उसे छोड़ने की इच्छा हुई । पूर्व भव में दान नहीं देने के कारण इस भव में घर-घर भिक्षा हेतु जाना पड़ता है, अनेक व्यक्ति ऐसा मानते है। इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ?
(वि. संवत् २०१७ में राजकोट में दिगम्बर पण्डित को कानजी के भक्तों ने बुलाया । परास्त करने के लिए वह हमारे पास आया । उसने अपनी पण्डिताई प्रदर्शित करते हुए कहा - 'आप से हम ऊंचे है ।' उस समय मैं कुछ बोला नहीं, परन्तु निश्चय किया कि अब न्याय का अध्ययन करना अनिवार्य है।)
एक अन्य का मत यह है कि 'कहीं ठिकाना नहीं । ललाट में भटकना ही लिखा हैं । इसमें धर्म कहां होगा ? रहने, खाने, पीने आदि की व्यवस्था में से ऊंचे आये तो धर्म-ध्यान होगा न ? कपड़े-मकान तो ठीक, उचित समय पर भोजन भी नहीं मिले, पापोदय के बिना ऐसी स्थिति नहीं आ सकती न? अतः गृहस्थावस्था में रह कर ही परोपकार के काम होते रहें, यही सच्चा धर्म है। (१४० ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)