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वह तीर्थंकर नाम-कर्म खपाने के लिए किया ।' परन्तु वह वाक्य हमारे लिए नहीं है । उनका नय (दृष्टिकोण) हम पकड़ लेंगे तो हम कृतघ्न बन जायेंगे । ___ 'जेह ध्यान अरिहंत को, सो ही आतमध्यान'
यह श्वेताम्बर संघ की प्रणालिका है । आत्म-ध्यान नहीं, प्रभु का ध्यान करता हूं । यही सब कहेंगे ।
हरिभद्रसूरिने कहा है - 'मैं भगवान को इच्छायोग से नमस्कार करता हूं - 'नमस्कार हो !' नमस्कार करनेवाला मैं कौन हूं ?'
सर्वोत्तम अवसर प्राप्त हों, आराधना के सुअवसर प्राप्त हों वे किसके प्रभाव से प्राप्त होते हैं ? भगवान के ही प्रभाव से ।
अन्यथा देह का क्या भरोसा? अभी-अभी ही मुन्द्रा से समाचार मिला है कि एक साध्वीजी का B.P. Down हो गया है। कहां है सब कुछ हमारे हाथ में ?
नैगमनय भगवान का नमस्कार मानता है। नौकर ने अश्व खरीदा, परन्तु गिना जाये किसका ? सेठ का ही गिना जाता है।
परमात्मा का ध्यान करने से आत्म-ध्यान आने वाला ही है ।
* भोजन में भूख मिटाने की शक्ति ही न हो तो क्या भूख मिटेगी ? छिलके खाने से क्या भूख मिटेगी ? भगवान में यदि मोक्ष प्रदान करने की शक्ति ही न हो तो क्या वे मोक्ष देंगे ?
_ 'बोधि एवं समाधि' आपको भक्ति से मिले । आपने भक्ति की इस कारण मिले कि भगवान ने दिये ?
भगवान के स्थान पर आप किसी अन्य की भक्ति करो - 'बोधि-समाधि' प्राप्त नहीं होंगे।
. हरिभद्रसूरिजी ने समस्त दर्शनों का योगदृष्टि-समुच्चय' में समावेश करके मानो कहा, 'जैन दर्शन तो समस्त दर्शनों को पीकर बैठा है।'
प्रश्न : 'जयवीयराय' में मार्गानुसारी आदि मांगे है, परन्तु जिसे वह प्राप्त हो गया हो वह क्यों 'जयवीयराय' बोले ? ६-७ गुणस्थानकों में रहा हुआ साधु... उसे मार्गानुसारिता से क्या तात्पर्य ?
उत्तर : उन गुणों को निर्मल बनाने के लिए ।
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कहे कलापूर्णसूरि - १
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