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साधु की प्रसन्नता देख कर क्या आपको कुछ लगता नहीं ? महाराज कैसे प्रसन्न रहते हैं ? सच्चा सुख यहीं है । अतः यहीं आने योग्य है ।
अध्यात्मसार भक्ति (सम्यग्दर्शन), सम्यग् ज्ञान, सम्यक् चारित्र प्रदान करती है और अन्त में मुक्तिप्रदान करती है। नवकार एवं लोगस्स दो जिनशासन के प्रसिद्ध भक्ति-सूत्र हैं। नवकार में सामान्य जिन को नमन है। लोगस्स में नामग्रहण पूर्वक विशिष्ट जिन को नमन है।
नाम-कीर्तन के द्वारा लोगस्स में गणधरों के द्वारा भगवान की भक्ति हुई है । 'नमुत्थुणं' में द्रव्य-भाव जिन की और 'अरिहंत चेइयाणं' में स्थापना जिन की स्तुति है ।
भाव जिन जितना उपकार करता है, उतना ही उपकार नामस्थापना आदि जिन भी करते हैं । भाव जिन के भी दो प्रकार हैं - आगम, नोआगम । समवसरणस्थ जिन का उपयोगवंत ध्याता भी आगम से भाव निक्षेप से भगवान ही है । 'जिनस्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे ।' ___ भक्त की भक्ति एवं भगवान की शक्ति, दोनों मिलने से कार्य होता है । ज्यों-ज्यों भक्त का अनुराग बढता हैं, त्योंत्यों भगवान का अनुग्रह बढ़ता ही जाता है ।
योग्य शिष्य प्रत्येक वक्त गुरु को ही आगे करता है ।
उस प्रकार भक्त प्रत्येक वक्त भगवान को आगे करता है । आवश्यक नियुक्ति में प्रश्न हैं - नमस्कार किसका माना जाता है ?
नमस्करणीय भगवान का कि नमस्कार-कर्ता भक्त का ?
नमस्करणीय भगवान का माना जाता है, परन्तु हम स्वयं का ही मान बैठे हैं । अमुक नय से करने वाले का भी माना जाता है, परन्तु भक्त की भाषा तो यही होती है - भगवान का ही सब कुछ है ।
भक्त भगवान का मानता है, परन्तु भगवान स्वयं का नहीं मानते । हम भगवान का नय पकड़ कर बैठ गये ।
गुरु कह सकते हैं - मैंने कुछ नहीं किया ।
भगवान कह सकते हैं - 'मैंने कुछ नहीं किया । जो किया कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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