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* व्यवहार छोड़ो तो तीर्थ जाता है । निश्चय छोड़ो तो तत्त्व जाता है ।
तीर्थ कलेवर है, तत्त्व प्राण है । प्राणहीन कलेवर का मूल्य नहीं है, उस प्रकार कलेवर के बिना प्राण भी रह नहीं सकते । व्यवहार ही निश्चय को प्राप्त कराता है । निश्चय का कारण बने वही व्यवहार है । व्यवहार की सापेक्षता बनाये रखे वही निश्चय है ।
दीक्षा-विधि के समय शायद चारित्र के परिणाम न भी उत्पन्न हों, परन्तु तो भी दीक्षा-विधि निष्फल नहीं है, क्योंकि बाद में भी परिणाम जागृत हो सकते हैं । जागृत नहीं हों तो भी दीक्षा-दाता का दोष नहीं है। उन्होंने तो विधि की ही आराधना की है। ऐसा भी हो सकता है कि दीक्षा के बाद वह घर जाये तो भी दीक्षा-दाता निर्दोष है।
भगवान महावीर के द्वारा दीक्षित नंदिषेण जैसे भी घर गये हैं । भगवान जानते थे फिर भी उन्होंने उन्हें दीक्षा दी, जिसके लिए नंदिषेण का ही विशेष आग्रह था । वेश्या के घर बारह वर्ष रहे तो भी वहां नित्य दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देते थे । बारह वर्षों में लगभग बयालीस हजार सर्व - विरतिधर शासन को दिये । यह भी तो शासन को लाभ ही हुआ ।
दीक्षा प्रदान करते समय गुरु का आशय ऐसा होता है कि 'यह संसार सागर से पार उतरे, यह मोह की जाल में से मुक्त हो और इसकी मोक्ष-यात्रा में मैं सहायक बनूं ।'
'दोष लगेगा, मृषावाद लगेगा' ऐसे भय के कारण आचार्य दीक्षा प्रदान करना बंद कर दें तो क्या होगा? शासन रुक जायेगा ।
भरत आदि को गृहस्थ-जीवन में केवलज्ञान हुआ उसमें पूर्वजन्म की आराधना कारण है । गृहस्थ-जीवन में केवलज्ञान हुआ यह ठीक है, परन्तु गृहस्थ-जीवन केवलज्ञान का कारण नहीं है । कारण तो पूर्व भव की साधुता की साधना ही है । उनके पाट पर आठ राजाओं को आरीसाभुवन (शीशमहल) में कैवल्य हुआ । वहां भी उनकी पूर्व भव की साधना ही कारण थी ।
आपको दीक्षा-विधि इस कारण बताते हैं कि देखते-देखते, सुनते-सुनते आप में भी दीक्षा ग्रहण करने का भाव जागृत हो । (१३६ ****************************** कहे कलापूर्णसूरि - १)