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भगवान का पदार्पण नहीं हो तब तक दीक्षा विधि का प्रारम्भ भी नहीं होता । स्थापना तीर्थंकर की यह बात है। तो फिर भगवान हमारे हृदय में न आये तो साधना का प्रारम्भ कैसे हो सकता है ?
स्थापना के अथवा नाम के द्वारा आखिर तो हमें भाव-तीर्थंकर की ही स्तुति करनी है । पोस्टकार्ड पर 'एड्रेस' में आप व्यक्ति का नाम लिखते हैं । मतलब नाम से नहीं हैं, व्यक्ति से है और वह पोस्टकार्ड मूल व्यक्ति को पहुंच ही जाता है ।
नाम कोई कम बात नहीं है । आपकी अनुपस्थिति में भी बैंक आदि में लेन-देन आपके नाम से ही होता है ।
भगवान जिस प्रकार बोधि प्रदान करते हैं, उस प्रकार उनकी प्रतिमा एवं नाम भी बोधि एवं समाधि प्रदान करते हैं (देखें लोगस्स)
_ 'आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवर - मुत्तमं दितु ।' पूर्ण आरोग्य अर्थात् मोक्ष, जो बोधि एवं समाधि से प्राप्त होते हैं । अतः प्रभु ! मुझे बोधि एवं समाधि प्रदान करो ।
यह गणधरों की स्तुति है ।
भगवान की भक्ति से दिन-प्रतिदिन चारित्रावरणीय कर्मों का क्षय होता है और फिर एक दिन आत्मानुभूति होती है ।
इसी लिए सच्चा भक्त भगवान को कदापि भूलता नहीं । 'निशदिन सूतां-जागतां, हैडाथी न रहे दूर रे । जब उपकार संभारिये, तव उपजे आनन्द पूर रे ॥'
- पू. यशोविजयजी - भक्ति के द्वारा धर्म का अनुबन्ध पड़ता है, जिससे वह भवान्तर में भी साथ चलता है ।
क्षयोपशम भाव की हानि-वृद्धि दिन-प्रतिदिन होती रहती है। यदि बीच में टूट जाये तो ? दस दिनों तक व्यापार बंद रखो तो?
यदि धर्म को शुद्ध एवं सानुबंध बनाना हो, तो सतत धर्म करना चाहिये । धर्म का सातत्य-भाव ही उसमें मुख्य अंग है, ऐसा पंचसूत्र में लिखा हैं । भक्ति की धारा कदापि न तोड़ें ।
बिमारी ( मद्रास में )के समय मेरी भक्ति की धारा टूट गई थी। पुनः उस प्रकार के भावों को जागृत करने में छः माह लग गये थे ।
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**** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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