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कभी के हैं, राजमार्ग नहीं । यों तो किसी को घर में ही केवलज्ञान हो जाता है, किसी को अन्य लिंग में भी हो जाता है तो उसका अनुकरण नहीं हो सकता । किसी को लौटरी लगी और वह करोड़पति बन गया, परन्तु उस आशा से अन्य कोई व्यक्ति बैठा रहे तो ?
प्रश्न : चंडरुद्राचार्य के शिष्य को विधि कहां थी ?
उत्तर : आप कहां सम्पूर्ण बात जानते हैं ? सम्भव है, चपटी जितने बाल बाकी रखें हो और बाद में विधि के समय उनका लोच किया हो । विधि-रहित दीक्षा हो तो क्या केवलज्ञान होगा ?
श्रावक भी लोच कराते हैं । लोच कराने के बाद भी वह घर पर जा सकता था, परन्तु वह घर नहीं गया । दीक्षा ग्रहण करने के लिए ही आग्रह रख कर रहा । उसकी श्रेष्ठता जान कर ही आचार्य ने उसे दीक्षित किया ।
योग्यता में तो गुरु से भी आगे बढ गये । गुरु से भी पहले केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ।
यदि आप जिनमत को चाहते हों, तो व्यवहार-निश्चय दोनों में एक का भी त्याग न करें ।
व्यवहार से शुभ परिणाम जागृत होते हैं, ज्ञानावरणीय आदि का क्षयोपशम होता है । चैत्यवन्दन विधि चारित्र के परिणाम उत्पन्न करने वाली है।
विधि के द्वारा ही भाव जगते हैं कि मैं साधु हो गया हूं। • व्यवहार के पालन से भाव, जो निश्चय रूप हैं, उत्पन्न होते हैं, भगवान की भक्ति करते-करते ही विरति के परिणाम बढते हैं, यह अनुभव-सिद्ध हैं। .
. प्रभु को देख-देख कर, ज्यों-ज्यों प्रसन्नता बढती हैं, त्यों-त्यों आप मानना कि मैं साधना के सच्चे मार्ग पर हूं। भक्ति-जनित प्रसन्नता कभी मलिन नहीं होती।
. अध्यात्मसार भगवान भक्ति से बंधे हुए है। जैसे कोई देव अमुक मंत्र अथवा विद्या से बंधा हुआ होता है। मंत्र बोलते ही उसे उपस्थित होना ही पड़ता है । भक्ति करो तो भगवान को उपस्थित होना ही पड़ता है ।
कहे
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